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Rediff.com  » Movies » पल पल दिल के पास रिव्यू

पल पल दिल के पास रिव्यू

By सुकन्या वर्मा
September 24, 2019 11:06 IST
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पल पल दिल के पास में जो भी संभावनाएँ थी, उसे गँवा दिया गया है, यह कहना है सुकन्या वर्मा का।

Pal Pal Dil Ke Paas

मनाली, #MeToo, कोमा, स्नो लेपर्ड, बहुत सी चीज़ें मिला दी गई हैं।

लेकिन सनी देओल ने अपने बेटे करण और नई-नई आई सहेर बाम्बा को पेश करने के लिए बतौर निर्देशक अपनी तीसरी कोशिश को "ऑल-इनक्लूसिव पैकेज" बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

खेद की बात है कि इतना सबकुछ होने के बावजूद फिल्म बच नहीं सकी, क्योंकि इसने अपनी स्वाभाविकता खो दी और रास्ता भटककर बॉलिवुड के घिसे-पिटे फॉर्मूलों की शिकार हो गई, जैसे राजनीतिक तौर पर प्रभावित परिवारों का गंदा खेल और बार-बार माँ के प्यार की रट और प्रार्थना वगैरह।

हालाँकि शुरु-शुरु में इसे देखकर सनी की अपनी पहली रूमानी फिल्म बेताब  की याद आ जाती है, जब एक सौम्य पहाड़ी लड़के और एक नटखट शहरी लड़की के बीच हसीन वादियों और खूबसूरत नज़ारों में हँसी-ठिठोली से भरा प्यार पनपता है।

अगर सच कहें तो पल पल दिल के पास  तब तक बिलकुल सही चलती है, जब तक वह प्रकृति की गोद में रहती है।

देओल को लगा कि गरीब लड़के और अमीर लड़की का समीकरण पुराना हो गया है और ये अब चलेगा नहीं, इसलिए उन्होंने जसविंदर सिंह बाथ और रवि शंकरन को लड़के और लड़की के मिलने के लिए कुछ नया सोचने की आज़ादी दी।

और इस तरह कहानी यह बनकर आयी कि करण मनाली में एक ट्रैकिंग रिसोर्ट चलाता है और साहेर दिल्ली की एक व्लॉगर है।

अपनी विषम दुनियाओं में रहने वाले लोग समान रूप से अच्छे, सामान्य और नाटकीयता-रहित होते हैं।

देओल ने उनके बीच कुछ ऐसी बेहतरीन चीज़ें भी जोड़ दी हैं, जो दर्शक को सुखद आश्चर्य से भर देती हैं और ट्रिप की भारी-भरकम फीस ठीक लगने लगती है और पता चलता है कि एक अनजान यात्री के लिए क्या-क्या खतरे हो सकते हैं।

उनके खूबसूरत रोमांच पर व्यवहारिकता का भाव छा जाता है, जब डर की जगह पर आदर आ जाता है और वे एक दूसरे की मदद करने लगते हैं, चाहे वह बीमारी की हालत हो या फिर राज़ की बातें हों।

साहेर की एक आज़ाद खयाल लड़की की छवि पर न्यौछावर होने का अभिनेता-निर्देशक का आगह यह बताता है कि अभी उन्हें बहुत कुछ करना है।

इसी पुरानी घिसी-पिटी मानसिकता का नतीजा है कि करन अपने लावारिस होने की दुखभरी कहानी हर कुछ मिनटों के बाद दोहराता है। लेकिन एक हिम तेंदुए को देखने में अपनी माँ की मौजूदगी का संकेत बताना इसे हँसी-मज़ाक की ओर ले जाता है।

खैर, इन सबके बीच बेहतरीन गाने जिन्हें खूबसूरत नज़ारों और रोमांचकारी खेलों के साथ बड़ी कलात्मकता से फिल्माए गए हैं (सिनेमेटोग्राफी हिम्मन धमेजा, रागुल धरूमन) हमें सुखद एहसास देते हैं।

करण और साहेर जैसे ही अलग होकर अपनी-अपनी राह निकलते हैं, उन्हें एहसास होता है कि वे एक-दूसरे से बेहद प्यार करने लगे हैं वे फोन पर एक दूसरे को पागलों की तरह टैक्स्ट करने लगते हैं।

इनको अलग करने के लिए वास्तव में कोई टकराव नहीं होता है, बल्कि कहानी के मोड़ पर आता है साहेर का पिछला प्रेमी जो एक युवा, कमज़ोर नदीम (श्रवण वाले) की तरह है जो उसे गंभीर नतीजों को लेकर भयभीत करता है।

उसका 'नेम एंड शेम' वाला रिएक्शन फिल्म को मनाली से दूर और भी मुश्किल जगहों पर ले जाता है।

फ़िल्म के इस मोड़ तक खूबसूरत दृश्य और मनमोहक बातें कहानी को किसी तरह बाँध कर रखती है लेकिन फिर अचानक ही कभी ना ख़त्म होने वाली अविश्वसनीय नाटकीयता, लचर बनावटी उलझनों के ऊपर सोशल मीडिया के खोखले उसूलों का तड़का फिल्म को एकदम उबाऊ बना देते हैं।

इस समय तक आप जान चुके होते हैं कि फिल्म में जो भी पोटेंशियल था वो सब गड़बड़ा चुका है, अब एक और बात हमें जाननी थी।

बच्चे कैसे हैं?

भद्दी स्टाइलिंग और बेकार मेकअप के वावजूद साहेर बम्बा शुरूआती दौर की तनुश्री दत्ता की कॉपी दिखाई देती है और एक साहसी और आकर्षक अभिनेत्री के रूप में सामने आती है।

करण देओल अभिनेता नहीं लगते हैं।

लेकिन वो एक अच्छे बच्चे जैसे ज़रूर लगते हैं, जैसे भारतीय माँ बाप कहते भी हैं। अच्छा बच्चा।

लेकिन वो किसी भी किस्म के इमोशन को निकाल पाने में नाकामयाब ही दिखाई देते हैं।

एक्टिंग करने वाले सीन्स में तो वो कभी कभी इतने अस्वाभाविक लग रहे हैं कि जैसे कोई लाचार भेड़ कहीं फंस गई हो और उस मुसीबत से वो तभी बाहर निकलते दिखाई देते हैं जब वो कोई एडवेंचर स्पोर्ट्स कर रहे हों या फिर सनी देओल जैसे कहीं चीख रहे हों। तब लगता कि बन्दे के अन्दर इंटेंसिटी है और उसे सही मायनों में इस्तेमाल करने के लिए उसे एक बेहतर डायरेक्टर की ज़रुरत है ना कि डैड की हौसला अफजाई की।

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सुकन्या वर्मा
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