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Rediff.com  » Movies » मिलन टॉकीज़ रीव्यू: समझ न आने वाली उधेड़-बुन!

मिलन टॉकीज़ रीव्यू: समझ न आने वाली उधेड़-बुन!

By Sukanya Verma
March 20, 2019 15:32 IST
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मिलन टॉकीज़ को खुद ही नहीं पता कि इसे किस तरह की मूवी कहा जाना चाहिये, सुकन्या वर्मा का कहना है।

मिलन टॉकीज़ शुरू होती है बॉलीवुड डायलॉग्स और गानों के एक मिश्रण के साथ।

और तिगमांशु धुलिया की यह बेहद पेचीदा उधेड़-बुन खत्म होती है अमरीश पुरी के दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे  के जाने-माने ‘जा सिमरन जा... जी ले अपनी ज़िंदग़ी‘ वाले डायलॉग के साथ।

इस मूवी को खुद ही नहीं पता कि इसे किस तरह की मूवी कहा जाना चाहिये।

भारत के छोटे शहरों में हिंदी सिनेमा का बोल-बाला दिखाते हुए अपनी शुरुआत करने वाली यह फिल्म बीच में परीक्षा में चीटिंग करने के विषय पर बनी एक पैरोडी का रूप ले लेती है और फिर बाद में एक घिसी-पिटी लव स्टोरी बन जाती है, जिसके खिलाफ़ खड़े होते हैं एक ग़ुस्सैल ब्राह्मण पिता के किरदार में आशुतोष राणा, और कुल मिला कर कहानी अपने घिसे-पिटे खोल से फटकर बाहर आने को तैयार खरबूजे जैसी लगती है।

मिलन टॉकीज़ की बेडौलता सिर्फ बेतुके ढंग से विषय बदलने तक ही सीमित नहीं है।

धुलिया ने इसकी तेज़ी से बदलती कहानी में ढेर सारे खोखले सबप्लॉट्स और किरदार भर दिये हैं और इस बेमतलब कहानी को पूरा देख पाना बहुत ही मुश्किल काम है।

इसकी टेढ़ी-मेढ़ी, भटकती स्क्रिप्ट से निकली 140 मिनट की फिल्म में एक के बाद एक गाने और तरकीबों को ऐसे ज़बरदस्ती घुसेड़ दिया गया है, जैसे डायरेक्टर ने अपनी गर्लफ्रेंड को कोई सीक्रेट मेसेज देने के लिये एक पूरी फिल्म बना दी हो।

और उसकी समझदारी पर धुलिया का कमज़ोर विश्वास वहीं साबित हो जाता है, जब उसका परिचय फिल्म में पैसे देकर परीक्षा पास करने वाली बेवकूफ़ लड़की के रूप में दिया गया है।

कमज़ोर से याद आया, मिलन टॉकीज़  एक पीरियड फिल्म है।

इसकी घटनाऍं 2010 से 2013 के बीच की हैं, लेकिन बदमाश कंपनी  को सलामी देने (वैसे ये कोई सलामी देने वाली फिल्म है नहीं) के अलावा, इन वर्षों को चुनने का कोई कारण समझ नहीं आया। 

फिल्मी किरदारों को नाटकीय वास्तविकता से जोड़ने पर धुलिया का विशेष ध्यान ही मिलन टॉकीज़  की कहानी का मुख्य आधार है।

उनके लीड्स रोमांस करते हुए एक पुराने मूवी थिएटर के प्रोजेक्शन बूथ में पहुंच जाते हैं।

फिल्म और वास्तविकता का पर्दे पर एक-दूसरे से आमना-सामना होता रहता है और दर्शक मूर्ख बनते रहते हैं।

मूवी के किरदार सिनेमा के लिये अपने प्यार या नफ़रत के लिये जाने जाते हैं।

धुलिया ने खुद भी बॉलीवुड के एक अभिलाषी का किरदार निभाया है, जिसकी फूलों वाली शर्ट और ज़ोरदार डायलॉगबाज़ी इस उबाऊ बकवास का एक अहम हिस्सा है।

अनु शर्मा (अली फ़ज़ल) और उसके चापलूस दोस्त इलाहाबाद के कुछ लड़के हैं, जो फिल्म निर्माता बनने की चाह रखते हैं।

प्रॉडक्शन को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है, जैसे रोल्स के लिये लोकल गुंडों की दादागिरी झेलना, तो कभी मुख्य किरदार का बिना बताये ग़ायब हो जाना, क्योंकि ऐंटी-रोमियो स्क्वाड (चिढ़े हुए सिकंदर खेर) बार-बार अपने गुप्तांगों का वीडियो लेने वाले उनके मुख्य किरदार के गुप्तांग को काट देती है, ताकि वह हीरोइन के सामने उत्तेजित न हो। इसका कोई भी हिस्सा हँसाने वाला नहीं है, न पहले और न बाद में।

मुश्किल तब शुरू होती है, जब अनु को मैथिली (श्रद्धा श्रीनाथ) से पहली ही नज़र में प्यार हो जाता है।

लड़की के दकियानूसी ब्राह्मण पिता इस जोड़ी के ख़िलाफ़ हैं।

अनु तो शर्मा है, तो सवाल उसकी जाति का नहीं है, बॉलीवुड बाप  के भारी-भरकम ईगो का है।

पुरुष-प्रधानता अपने जलवे दिखाने लगती है, और फर्स्ट हाफ़ का हल्का-फुल्का हँसी-मज़ाक भी सेकंड हाफ़ के नीरस मेलोड्रामा के बीच दम तोड़ देता है।

धुलिया ने वातावरण अच्छा बनाया है और उन्हें उनके कलाकारों से अच्छा सहयोग मिला है, जो उनकी बनाई दुनिया का ही हिस्सा नज़र आते हैं।

इस टूटी-फूटी स्क्रिप्ट में उनका अच्छा अभिनय काबिल-ए-तारीफ़ है, लेकिन इतना भी नहीं कि लोग बाप के अफसोस और जोड़े के ट्रेन में बैठ कर एक नयी ज़िंदग़ी की ओर निकलने की उसी पुरानी घिसी-पिटी कहानी को एक बार फिर झेलें।

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Sukanya Verma
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