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माहवारी की तकलीफ इन्हे न होने के बावजूद ये इनके लिए मायने रखती है

Last updated on: May 31, 2019 16:17 IST
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'जब हम लोगों के जन्मदिन मना सकते हैं, तो फिर उनके जन्म के कारण की खुशी क्यों नहीं मना सकते?'

'कई घरों में माहवारी के दौरान महिला को अलग सोना पड़ता है। कुछ महिलाओं को बिस्तर पर सोने नहीं दिया जाता।'

'यह एक प्रकार का भेदभाव है। यह महिलाओं के मूल मानवाधिकार का हनन है।'

फोटोग्राफ: Nishant Bangera/Instagram के सौजन्य से

निशांत बंगेरा, 27, को मासिक धर्म से ग़ुज़रने वाली महिलाओं के सहयोग में अभियान चलाने के लिये जाना जाता है।

पुरुष होने के नाते, उन्होंने माहवारी को ख़ुद कभी महसूस नहीं किया है।

उन्हें कभी माहवारी के दर्द या तकलीफ़ को सहना नहीं पड़ा है।

लेकिन फिर भी वो इस मुद्दे को गुप्तता और शर्मिंदगी के पर्दे से ढँकना नहीं चाहते।

बल्कि, उन्होंने इसकी खुशी मनाने की शुरुआत की है। और उन्हें इसके लिये किसी बहाने की ज़रूरत नहीं है।

"जब हम लोगों के जन्मदिन मना सकते हैं, तो फिर उनके जन्म के कारण की खुशी क्यों नहीं मना सकते?" वो पूछते हैं।

निशांत ठाणे में स्थित एक NGO, म्यूज़ फाउंडेशन के संस्थापक हैं (ठाणे मुंबई से लगा हुआ शहर है), जो युवाओं में तर्कसंगत सोच विकसित करने का काम करता है।

उनका अ पीरियड ऑफ़ शेयरिंग  अभियान माहवारी संबंधी स्वास्थ्य पर केंद्रित है और इसका लक्ष्य है महिलाओं को अपनी माहवारी के बारे में खुल कर बात करने के लिये प्रेरित करना।

"हमने स्वस्थ माहवारी के विषय में जागरुकता बढ़ाने के लिये 2014 में इस अभियान को शुरू किया था," उन्होंने बताया।

"तब से हम महिलाओं को डिस्पोज़ेबल सैनिटरी नैपकिन्स की जगह कपड़े के पैड्स का इस्तेमाल करने के लिये प्रेरित कर रहे हैं।

"डिस्पोज़ेबल नैपकिन्स प्लास्टिक की बनी होती हैं और इनमें कई प्रकार के केमिकल होते हैं। ये न सिर्फ पर्यावरण, बल्कि महिला के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करते हैं। "

महिलाओं को अपनी माहवारी पर गर्व होना चाहिये, शर्मिंदग़ी नहीं।

जब इस NGO ने महिलाओं को स्वस्थ माहवारी की जानकारी देने का अभियान शुरू किया, तब उन्हें पता चला कि सिर्फ तकनीकी जानकारी देने से स्वास्थ्य समस्या को दूर नहीं किया जा सकता है।

मुंबई के कई स्थानों पर उनके द्वारा संचालित एक अध्ययन में पता चला कि महिलाओं और माहवारी से जुड़ी कई बेड़ियाँ, रिवाज़ और प्रक्रियाऍं आज भी प्रचलन में हैं।

निशांत ने बताया, "कई घरों में माहवारी के दौरान महिला को अलग सोना पड़ता है। कुछ महिलाओं को बिस्तर पर सोने नहीं दिया जाता।"

"कई बार ये महिलाऍं PCOD (पॉलीसिस्टिक ओवेरियन डिसीस) से पीड़ित होती हैं, जिसके बारे में उन्हें पता नहीं होता। हो सकता है कि वे माहवारी से जुड़ी अन्य बीमारियों से भी पीड़ित हों।

"दर्द की इस स्थिति में उनके शरीर को आराम की ज़रूरत होती है। फर्श पर सोना उनकी तकलीफ़ को और बढ़ा सकता है।

"यह कई तरह से महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह एक प्रकार का भेदभाव है। यह महिलाओं के मूल मानवाधिकार का हनन है।"

भारत में माहवारी के बारे में खुले-आम चर्चा नहीं की जाती

पिछड़े वर्ग की महिलाओं को लगता है कि माहवारी के दौरान होने वाले दर्द और तकलीफ के बारे में बात करना सही नहीं है।

"उन्हें अपने पति के साथ अपनी माहवारी की समस्या के बारे में बात करने में शर्म महसूस होती है।"

"इस स्थिति को बदलना बेहद ज़रूरी है, और यह बदलाव तभी संभव है, जब हम माहवारी के बारे में बात करना शुरू करें।"

"हम सिर्फ बातचीत द्वारा लोगों की सोच नहीं बदल सकते; हमें जागरुकता बढ़ाने की भी ज़रूरत है।"

"आप भले ही दस लाख टॉयलेट क्यों न बनवा दें, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं होगा, अगर आप लोगों को उनके इस्तेमाल का तरीका न सिखायें।"

"इसी प्रकार, आप भले ही लाखों सैनिटरी नैपकिन दान क्यों न कर दें, लेकिन अगर महिलाओं के लिये स्वच्छ, कीटाणुरहित टॉयलेट न हों, तो आपकी मेहनत बेकार है।"

"भारतीय लड़की हमेशा अपनी कपड़े की पैड खुले में सुखाने में शर्म महसूस करेगी, क्योंकि उसे फिक्र लगी रहेगी कि उसके पड़ोसी क्या कहेंगे।"

"व्यक्तिगत से सामाजिक स्तर तक, सभी को आगे आकर माहवारी के बारे में चर्चा करनी चाहिये, जो इसे सहज बनाये और इसके प्रति जागरुकता भी बढ़ाये।"

मासिका महोत्सव द्वारा माहवारी का जश्न

अपने तीसरे साल में कदम रख चुके मासिका महोत्सव का मतलब है 'माहवारी का उत्सव'।

यह NGO के अ पीरियड ऑफ़ शेयरिंग  अभियान का हिस्सा है और उन्होंने 21 से 28 मई तक इस उत्सव को मनाने का फैसला किया है।

इस पूरे सप्ताह माहवारी का उत्सव मनाया जायेगा; इस उत्सव की तिथि को विश्व माहवारी दिवस के साथ रखा गया है, जो 28 मई को मनाया जाता है।

"हमारे लिये लोगों को घर से बाहर लाना बहुत ही मुश्किल काम है (उत्सव के लिये)। इसलिये हम उन्होंने बताते नहीं हैं कि इसका विषय माहवारी है।"

"हम उनसे कहते हैं कि यह एक प्रकार का उत्सव है और हम महिलाओं के स्वास्थ्य के बारे में बाते करना चाहते हैं।"

"जब महिलाऍं उत्सव के लिये आ जाती हैं, तब हम धीरे-धीरे उनसे बातचीत शुरू करते हैं।"

माहवारी से जुड़े हुए लांछन

निशांत ने सिर्फ 20 वर्ष की उम्र में NGO की स्थापना की थी।

"उस समय, मैं कॉलेज में था," इस ऐक्टिविस्ट ने हमें बताया, जिन्हें माहवारी का अर्थ दसवीं कक्षा में पता चला था।

"स्कूल में प्रजनन संबंधी अध्याय हटा दिये गये थे। ये एक बहुत ही बड़ी गलती थी। आप लोगों से जानकारी की उम्मीद कैसे रख सकते हैं, जब आप माहवारी के बारे में खुल कर बात ही नहीं करना चाहते?"

"मेरी माँ ने कभी भी मुझसे इसके बारे में बात नहीं की। मैं हमेशा सोचता था कि उसने अपनी अल्मारी में कौन सी ऐसी चीज़ छुपा रखी है और वो क्यों मुझे अचानक उसे छूने से मना करती है।"

जब निशांत एक डिज़ाइन एजेंसी के साथ काम कर रहे थे, तब उनके HR ने उन्हें दहाणू (मुंबई से लगभग 110 किमी दूर, पालघर जिले में समुद्र के किनारे पर बसा एक शहर) के एक स्कूल के बारे में बताया, जहाँ सैनिटरी नैपकिन्स की नियमित रूप से आपूर्ति नहीं हो पाती।

तसवीर: निशांत महिलाओं से उनकी माहवारी से जुड़ी समस्याओं पर बात करने की उम्मीद में।

"तब तक, मैं सोचता था कि यह रोज़ खाना खाने जैसी आम बात है।"

"मुझे लगा कि इस स्कूल के लिये दान और सैनिटरी नैपकिन्स की आपूर्ति के लिये शहर के लोगों को एक साथ लाना आसान होगा। इसी सोच के साथ अ पीरियड ऑफ़ शेयरिंग  की शुरुआत हुई।"

"बाद में मुझे सैनिटरी नैपकिन्स, उनसे जुड़ी समस्याओं और स्वास्थ्य पर उनके दुष्प्रभावों का पता चला।"

एक ट्रैवल कंपनी में काम करने वाले निशांत अपने NGO का खर्च ख़ुद उठाते हैं। "हमारे कुछ शुभचिंतक भी हैं," उन्होंने बताया।

"मैंने अपना निजी जीवन त्याग दिया है। फुल-टाइम नौकरी और समाजसेवा करने के लिये आपको बहुत सी चीज़ें छोड़नी पड़ती हैं।"

"दिन में मेरे पास सिर्फ 24 घंटे होते हैं। मैं तीन घंटे यात्रा करता हूं, आठ घंटे काम करता हूं और बाकी पूरा समय NGO को देता हूं।"

"न मैं पार्टी के लिये बाहर जा पाता हूं, न मेरी कोई गर्लफ्रेंड है। कहीं न कहीं, आपको समझौता करना ही पड़ता है।"

जैसे-जैसे निशांत को माहवारी से जुड़ी और समस्याओं का पता चलता गया, निशांत ने महसूस किया कि सभी महिआओं को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

"आपको शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग महिलाओं, मोटी महिलाओं, नेत्रहीन महिलाओं जैसी श्रेणियों पर विशेष ध्यान देना पड़ता है।"

"कुछ सार्वजनिक शौचालय इतने छोटे होते हैं, कि मोटी औरतें उसमें घुस ही न पायें, सैनिटरी नैपकिन बदलना तो दूर की बात है।"

"हमारे ज़्यादातर टॉयलेट्स में यहाँ-वहाँ शौच बिखरी होती है," उन्होंने आगे कहा।

अजीब नज़र से घूरना

अक्सर महिलाऍं निशांत को घूरने लगती हैं, जब वो माहवारी के बारे में बात करते हैं। किसी मर्द को इस बारे में बात करते देखना उनके लिये अजीब बात है।

इसलिये उन्हें महिला स्वयंसेवियों को यह काम देना पड़ता है। कई बार, सभी महिलाऍं बस सुनती हैं और चुप रहती हैं।

"आप चाहते हैं कि वो खुल कर बात करें। आप उनसे बातचीत करना चाहते हैं। आप चाहते हैं कि वो अपनी समस्याओं के बारे में और अपने घर की स्थिति के बारे में आपको बतायें," उन्होंने आगे कहा।

जब वो मर्दों से बात करते हैं, तो मर्दों को भी यह अजीब लगता है। लेकिन, अजीब लगने से ज़्यादा, उनकी बेपरवाही निशांत को चिंतित कर देती है।

"मणिपाल के सबसे बड़े शैक्षणिक संस्थानों में से एक में अपने लेक्चर के दौरान मैं दंग रह गया। मैंने कुछ छात्रों को यह कहते सुना कि उनका इस चीज़ (माहवारी की समस्याओं) से कोई लेना-देना नहीं है।"

"क्या ये लड़के कभी शादी नहीं करेंगे? क्या उनके कभी बच्चे नहीं होंगे?" उन्होंने पूछा।

"भारतीय महिलाऍं सैनिटरी नैपकिन्स से जुड़ी कुछ समस्याओं का सामना कर रही हैं। लेकिन उनकी समस्याओं को कहीं भी दर्ज नहीं किया गया है। उनकी ये समस्याऍं गुप्त रह जाती हैं।"

निशांत के सामने एक और बात आयी, कि महिलाऍं अपने ही ख़ून से दूर भागती हैं।

"युवतियाँ अपने ही ख़ून को छूना नहीं चाहतीं, क्योंकि वे सैनिटरी नैपकिन्स का इस्तेमाल करती हैं।"

"हमें उन्हें यह बताने की ज़रूरत है, कि यह आपका ख़ून है और इसे छूना कोई गलत बात नहीं है।"

आइये माहवारी के बारे में बात करें

निशांत को लगता है कि भारत को माहवारी के बारे में खुली चर्चा की ज़रूरत है, और हर किसी को इस चर्चा में हिस्सा लेना चाहिये - सरकार, धर्मगुरू, समाज और लोग सभी इसमें शामिल होने चाहिये।

"ज़्यादा महिलाओं को सरकार का हिस्सा होना चाहिये," उन्होंने कहा। "निर्णायक प्रक्रियाओं में ज़्यादा महिलाओं को शामिल होना चाहिये। तभी स्थिति में बदलाव लाना संभव होगा।

"लोगों को लगता है कि ज़रूरतमंदों को सैनिटरी नैपकिन्स दान करना ही सब कुछ है।"

"लेकिन आपको घर-घर जाकर पतियों से भी बात करनी चाहिये।"

"आपको उनसे कहना चाहिये कि माहवारी के दौरान वो अपनी पत्नियों के स्पर्श से दूर न भागें।"

"महिलाओं को सैनिटरी नैपकिन खरीदते समय पैकेट को पलट कर देखना चाहिये कि उसमें क्या है। कंपनियों को जवाबदेह बनाना ज़रूरी है।"

इस विषय पर ख़ामोश बैठे रहने से औरतों और लड़कियों को ख़राब सामग्री ही मिलती रहेगी।

उन्हें माहवारी की समस्याओं का सामना करने के लिये ज़रूरी सेवाऍं और सहयोग नहीं मिल पायेंगे।

सरकार की भूमिका महिलाओं को सैनिटरी नैपकिन्स देने तक ही सीमित नहीं है।

"महिलाओं के लिये स्वच्छ टॉयलेट उपलब्ध होने चाहिये।"

"अगर वो मेन्स्ट्रुअल कप का इस्तेमाल कर रही हैं, तो उन्हें सफ़ाई के लिये पानी की ज़रूरत पड़ती है।"

"झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली ज़्यादातर महिलाऍं अपने पैड्स को जला देती हैं या दफ़न कर देती हैं, जो जानवरों को मिल जाते हैं।"

"साथ ही, सार्वजनिक शौचालय में सैनिटरी नैपकिन फेंकने के लिये कूड़ेदान नहीं होते।"

"हमारे पास महिलाओं द्वारा सार्वजनिक शौचालय की खिड़की में फँसाये गये सैनिटरी नैपकिन्स की तसवीरें हैं, क्योंकि उनके पास इसे फेंकने का कोई दूसरा तरीका नहीं होता। कोई भी महिला ऐसा करना नहीं चाहती, लेकिन मजबूरी में उसे ऐसा करना पड़ता है।"

महिलाओं (और पुरुषों) के लिये एक संदेश

"मैं पुरुषों को उनके सबसे पुराने घर, बच्चेदानी की याद दिलाना चाहूंगा। आपका जन्म यहीं से हुआ था, और आपको कभी भी इसे भूलना नहीं चाहिये।"

"पुरुषों को अपनी पत्नियों और अपने जीवन से जुड़ी हर महिला के बारे में सोचना चाहिये।"

"समझें कि महिलाओं को अपनी माहवारी के दौरान किन चीज़ों का सामना करना पड़ता है। अपना प्यार जताने का इससे बेहतर तरीका और नहीं हो सकता।"

उन्होंने आगे कहा, "सभी महिलाओं से मेरी अपील है कि वे विज्ञापनों के बहकावे में न आयें।"

"अपने शरीर के अनुसार सही प्रॉडक्ट चुनें। रीसर्च करें और अपने अधिकारों के लिये लड़ने को तैयार रहें।"

मासिका महोत्सव में हिस्सा लेने के बारे में उन्होंने कहा, "आप हमेशा आगे बढ़कर जागरुकता फैला सकते हैं। एक समुदाय को गोद लें। एक सत्र संचालित करें। एक वर्कशॉप आयोजित करें।"

"अगर आपके पास समय न हो, तो कम से कम आप अपनी कामवाली से बात कर सकती हैं। उसकी माहवारी से जुड़ी समस्याओं को समझें। अगर वो कुछ गलत कर रही है, तो उसे सुधारें और उसकी मदद करें।"  

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