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रीव्यू: पीएम नरेंद्र मोदी एक काल्पनिक कहानी है

May 25, 2019 16:05 IST


यह मूवी हमारे सामने मोदी का ऐसा रूप रख रही है, जैसा भक्त हमें दिखाना चाहते हैं, उत्कर्ष मिश्रा ने महसूस किया।

PM Narendra Modi

ओमंग कुमार की पीएम नरेंद्र मोदी  का ट्रेलर देख कर मेरे एक दोस्त की कही बात विवेक ओबेरॉय की इस फिल्म को बख़ूबी स्पष्ट करती है।

"बहुत दुःख होता है," उसने कहा। "हम प्रचार का काम भी ठीक से नहीं कर सकते।"

"सोवियत्स के पास आइसेन्स्टीन था, जो फिल्म थ्योरी इतनी सहजता से लिखता था, जैसे हम अपने दाँतों को ब्रश करते हैं; नाज़ियों के पास राइफ़नस्टॉल था, जो इतना प्रभावशाली था कि स्पाइक ली और स्टार वॉर्स ने भी उसके काम का ज़िक्र किया है," उसने आगे कहा

"अमरीकियों के पास भी जॉन फोर्ड था, जिसने नॉर्मन्डी लैंडिंग्स के वृत्तचित्र के लिये रेकॉर्ड चार ऑस्कर्स जीते।

"और हमारे पास कौन है? ओमंग कुमार!"

पीएम नरेंद्र मोदी निश्चित रूप से प्रचार के लिये ही बनाई गयी है, जो नमो टीवी की तरह ही आदर्श आचार संहिता को तोड़ने-मरोड़ने का एक तरीका है।

लेकिन चुनाव आयोग को कुछ तो कार्रवाई दिखानी ही थी, तो उन्होंने मूवी की रिलीज़ को आगे बढ़ा दिया।

इसके हिस्सेदारों के लिये खुशी की बात यह है कि इन सब के बावजूद इस मूवी के अच्छा व्यापार करने की काफी संभावना है; क्योंकि मई 23 को आये लोक सभा नतीजों से साफ़ पता चलता है कि पीएम के फैन्स की कमी नहीं है

फिल्म में वास्तविकता की अशुद्धियों को चिन्हित करना निरर्थक होगा।

मुझे नहीं लगता कि कोई किसी भी मौजूदा प्रधानमंत्री पर - नरेंद्र मोदी तो दूर की बात हैं - सच्ची मूवी बना कर 70 मिमी के पर्दे पर उतार सकता है।

साथ ही, अन्य बायोपिक्स की तरह इसमें भी आपको शुरुआत में एक अस्वीकरण दिखाया जाता है कि मूवी दिखाई गयी घटनाओं की ऐतिहासिक वास्तविकता का दावा नहीं करती और आवश्यकतानुसार नाटकीय रूपांतरण का इस्तेमाल किया गया है।

मुख्य किरदार और कुछ जाहिर जानकारियों के अलावा, मुझे लगता है कि पूरी की पूरी फिल्म काल्पनिक है।

इस मूवी में बाल नरेंद्र की भी कुछ झलकियाँ हैं, जो सैनिकों को देखते ही सलाम ठोकते हुए 'भारत माता की जय' के नारे लगाते दिखाई देते हैं।

जैसे पुराण की हर बात का आधार उसका नाम देने वाले भगवान होते हैं, वैसे ही राजनीति में कदम रखते ही मोदी देश की अधिकांश राजनैतिक घटनाओं का मुख्य कारण बन जाते हैं।

मूवी बनाने में 'कलात्मक आज़ादी' का इस हद तक इस्तेमाल किया गया है, कि इंदिरा गांधी एक पौधे को पानी देते-देते अचानक इमरजंसी लगाने का फैसला ले लेती हैं, जब उन्हें पता चलता है कि उन्हें गुजरात के नरेंद्र दामोदरदास मोदी नाम के एक युवा से 'खतरा' है, जो गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण नेता है।

हालांकि मोदी के अलावा उनकी माँ, रतन टाटा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता लक्ष्मणराव इनामदार का न तो नाम लिया गया है, और न ही झूठे नाम का इस्तेमाल किया गया है।

लेकिन वाजपेई, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, केशुभाई पटेल, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह और मणि शंकर अय्यर के साथ कुछ और लोगों को पहचाना जा सकता है।

सोनिया 'बदी की रानी' है, जिसे हमेशा यही फिक्र सताती है, कि मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने पर क्या होगा।

मनमोहन सिंह बोल नहीं सकते और हमेशा हास्यास्पद चेहरा बना कर अपनी तरफ से बोलने के लिये दूसरों की ओर देखते हैं।

काँग्रेस के अन्य नेता हमेशा मोदी को 'अनपढ़', 'गँवार', 'चायवाला' जैसे नामों से बुलाते रहते हैं।

कुछ गाँव वाले बात करते दिखाई देते हैं कि अगर जवाहरलाल नेहरू की जगह सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते, या अगर नेहरू ने पाकिस्तान, चीन इत्यादि के बारे में पटेल की सलाह मानी होती तो कैसे देश कभी किसी मुसीबत में नहीं पड़ता।

जैसा कि मैंने मोदी वेब सीरीज़ के रीव्यू में लिखा था, मोदी के पूरी तरह प्रचारक बनने से पहले, उनके बचपन और जवानी के किस्से पूरी तरह पौराणिक कहानियों जैसे लगते हैं; आपको नहीं पता होता कि क्या सच है और कितना सच है।

लेकिन आप किसी भी तरह इन किस्सों को गलत साबित नहीं कर सकते।

उनकी ज़िंदग़ी की घटनाओं से जुड़ी कहानियाँ -- जिन्हें उनके समर्थक लेखक भी झूठा मानते हैं -- इस मूवी में भरी हुई हैं, ख़ास तौर पर इमरजंसी के दौरान उनकी भूमिका से जुड़ी कहानियाँ।

मोदी को ज़्यादातर अडवाणी के प्रतिनिधि की तरह दिखाया है, जो सीधे इंदिरा से बात करते हैं। लेकिन लेखक इस बात को भूल गये कि इमरजंसी के समय अडवाणी जेल में थे।

लाल चौक में झंडा फहराने की घटना भी, जिसका बखान करते भक्त थकते नहीं हैं, उतनी ही नाटकीय है। गलत छवि पेश करने के लिये कम से कम ऐसी चीज़ों को झूठे तरीके से नहीं दिखाया जाना चाहिये, जिनके वीडियो प्रमाण यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

साथ ही, यह बात मेरी समझ से परे है कि मोदी के समर्थक उनकी शादी का ज़िक्र क्यों नहीं करना चाहते, जब अपने चुनावी हलफ़नामे में उन्होंने ख़ुद इस बात को स्वीकार किया है।

मूवी में नरेंद्र के माता-पिता उनकी शादी तय करते दिखाई देते हैं। लड़की, यानि कि जसोदाबेन, के पिता नरेंद्र से उसके हाथ में मौजूद किताब के बारे में पूछते हैं।

नरेंद्र उन्हें बताते हैं कि यह बुद्ध की कहानी है, जिन्होंने अंतरात्मा की तलाश में अपने घर और पत्नी को त्याग दिया था। बड़ा झटका तब लगता है, जब वो कहते हैं कि वो भी बुद्ध की राह पर चलना चाहते हैं।

बस... उन्हें सारी ज़िम्मेदारियों से वहीं आज़ादी मिल जाती है।

कोई शादी नहीं होती और वो अपनी तलाश में हिमालय निकल जाते हैं।

कम शब्दों में, यह मूवी हमारे सामने मोदी का ऐसा रूप रख रही है, जैसा भक्त हमें दिखाना चाहते हैं।

एक आदमी, जो ग़रीब परिवार से ऊपर उठा है, पैसों के दम पर नहीं, बल्कि लोगों के बीच कड़ी मेहनत करके चुनाव जीत रहा है।

ज़्यादा लोकप्रिय होने के बावजूद वह एक बुज़ुर्ग नेता को मुख्यमंत्री बनने का मौका देता है, जो बाद में उसे ही धोखा दे देते हैं।

लेकिन, क़िस्मत उसे दूसरा मौका देती है, और अपनी कड़ी मेहनत के बल पर वह मुख्यमंत्री बन जाता है।

फिर उन्हें एक केंद्र सरकार के साथी भ्रष्टाचारी उद्योगपति का सामना करना पड़ता है, जिसपर मोदी जालसाज़ी से व्यापार करने के लिये कार्रवाई करते हैं।

इसके बाद वह उद्योगपति मोदी की छवि बिगाड़ने के लिये 'बिकाऊ' मीडिया का इस्तेमाल करता है और अपने शक्तिशाली दोस्तों की मदद से मोदी का नाम गुजरात दंगों में घसीट लेता है। उसी के कारण मोदी को युनाइटेड स्टेट्स का विज़ा भी नहीं मिल पाता।

और एक पार्टी है, जिसकी राज्य सरकार दंगों के दौरान मोदी की मदद नहीं करती और इसलिये लोगों के बीच मार-काट देख कर भी मोदी को चुप रहना पड़ता है।

दिलचस्प बात यह है कि दंगों के दौरान मार-काट सिर्फ मुस्लिम गिरोह ने मचाई है और हिंदू दल सिर्फ तलवारें लिये घूमते हैं और खुद को बचाने के लिये जय श्री राम बोलने वाले एक मुसलमान की जान बख़्श देते हैं।

लेकिन अपनी सच्चाई, विनम्रता और लोगों के सहयोग के साथ मोदी सब को उन्हीं के खेल में मात देते हुए राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं।

यही आज मोदी का आधिकारिक रूप है। अगर आप इसे नहीं मानते, तो आप राष्ट्र-विरोधी हैं, बिकाऊ हैं और/या पक्षपाती हैं।

मूवी में एक ही चीज़ अच्छी है, इसकी सिनेमेटोग्राफी।

लेकिन इसका साउंड कानों में चुभता है।

विवेक ओबेरॉय ने मोदी की नकल करने की कोशिश नहीं की है, लेकिन कुछ सीन्स में उनके हाथ और हाव-भाव बिल्कुल मेल खाते हैं।

अगर आप चुनने बैठें तो कहानी में बहुत खामियाँ हैं।

लेकिन, अगर आप मोदी फैन हैं, तो निश्चित रूप से आप ऐसा नहीं सोचेंगे और आपको मूवी ज़रूर पसंद आयेगी।

 

Rediff Rating:

उत्कर्ष मिश्रा