प्रस्थानम को एक बार देखना तो बनता है। पर इससे आपको कोई बड़ी उम्मीद नहीं लगानी चाहिए, करण संजय शाह का ऐसा मानना है ।
मनोरंजन के नज़रिए से पॉलिटिकल ड्रामा हमेशा दर्शकों को खूब पसंद आया है।
अब, संजय दत्त को हम एक बार फिर देखने जा रहे हैं प्रस्थानम के रूप में, जो एक ऐसी फिल्म है जो खानदानी राजनीति और इसके बुरे पक्ष को एक बार फिर पर्दे पर जीवंत करने जा रही है।
पोस्टर में तो ये फिल्म अच्छी लगती है, पर यह 2010 में तेलुगु भाषा में बनी देवा कट्टा का हिन्दी रीमेक है और बीच-बीच में कुछ ज़बर्दस्त पलों को छोड़कर बाकी ये फिल्म औसत ही है।
संजय दत्त बलदेव प्रताप सिंह की भूमिका में हैं, जो उत्तर प्रदेश के एक राजनीतिक राजवंश के मुखिया हैं।
वे एक कद्दावर नेता हैं, जिन्होंने पिछले चार चुनावों में लगातार जीत हासिल की है और अपने राज्य के विकास के लिए काम कर रहे हैं।
उनका बड़ा सौतेला बेटा है आयुष (अली फज़ल) जो उनके नक्शे कदम पर चल रहा है और स्वभाव से आदर्शवादी है।
हालाँकि वो कभी-कभी राउडी बन जाता है, पर कुल मिलाकर दिल का अच्छा है।
बलदेव का अपना बेटा विवान (सत्यजीत दुबे) एक बिगड़ैल बेटा है और वो आयुष से अपने बाप का सिंहासन छीनना चाहता है।
वह अपने बुरे व्यवहार और जलन का खुद शिकार बनता है और साथ ही चुनावों में बलदेव की जीत की राह में भी काँटे बिछाता है।
विवान की वजह से हुई एक बड़ी दुर्घटना परिवार को बर्बादी की ओर धकेलने लगती है और बलदेव की जीत को मुश्किल बना देती है।
इसके कारण बलदेव को अपने दुश्मन बजवा खत्री (चंकी पांडे) से हाथ मिलाना पड़ता है।
बलदेव और उसके पुराने वफादार बादशाह (जैकी श्रॉफ) को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, जबकि सरोज के किरदार में मनीषा कोईराला चुपचाप सब देखती रहती है।
क्या बलदेव अपने परिवार को बचा पाएगा?
क्या विवान और आयुष एक दूसरे के साथ रह पाएँगे?
अभिनय में किसी ने कोई कमी नहीं छोड़ी है।
अली फज़ल ने अपने बेहतरीन किरदार को बखूबी निभाया है।
वे अपनी भूमिका में पूरी तरह से रमे हैं, अपने लहज़े से लेकर एक्शन तक। उसके आदर्शवादी और भावनात्मक किरदार में आप भी घुलमिल जाते हैं।
चंकी पांडे, संजय दत्त और अली फज़ल के दुश्मन के किरदार में बिलकुल फिट हैं।
उनके डायलॉग्स, एक्सप्रेशंस और कमीनेपन वाली अदा दिल छू लेती है।
जैकी श्रॉफ के चाहने वालों को एक खामोश लेकिन जानलेवा किरदार के तौर पर उनकी जानदार परफॉर्मेन्स बेहद पसंद आएगी।
संजय दत्त ने कुछ ज़ोरदार पंच दिए हैं, पर फिर भी वो अपने किरदार को उतना अच्छा जी नहीं पाए। शायद कुछ साल पहले वाले संजय दत्त अपनी भूमिका के साथ बेहतर न्याय कर पाते।
उनके एक्शन सीन बुरी तरह से कोरियोग्राफ और एडिट किए गए हैं।
मनीषा कोईराला थोड़ी और दमदार भूमिका कर सकती थी, पर वे बस एक मूक दर्शक बनकर रह गईं।
लेखन और निर्देशन अच्छा है और इसका श्रेय जाता है देवा कट्टा को। इस फिल्म में अचानक आने वाले कुछ मोड़ आपको स्तब्ध कर देने के लिए काफ़ी होंगे।
प्रस्थानम आज के राजनीतिक परिदृष्य को भी बड़ी खूबी से रेखांकित करती है, जैसे पार्टियों के बीच घमासान, और चुनावी नतीजों पर बिज़नेसमेन तथा पैसे का असर।
लेकिन अमायरा दस्तूर और अली फज़ल का लव ट्रैक कुछ गानों के चलते टाला जा सकता था।
दो घंटे बीस मिनट लंबी प्रस्थानम कुछ ज़्यादा ही खिंच गई लगती है। इसके कम से कम 20 मिनट तो कम किए ही जा सकते थे।
इसका क्लाइमैक्स चलते रहता सा लगता है।
इसके हार्ड-हिटिंग सीक्वेंस और स्ट्राँग मैसेज की वजह से फिल्म लड़खड़ाती है।
फिर भी, प्रस्थानम एक बार तो देखने लायक है ही। पर फिल्म देखने जाएँ तो अपने साथ कोई बड़ी उम्मीद लेकर न जाएँ।