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Rediff.com  » Movies » बार्ड ऑफ़ ब्लड रीव्यू

बार्ड ऑफ़ ब्लड रीव्यू

By सुकन्या वर्मा
Last updated on: September 30, 2019 14:53 IST
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बार्ड ऑफ़ ब्लड  कुछ दिलचस्प और मज़ेदार मोड़ तो लेती है, लेकिन दर्शकों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाती, सुकन्या वर्मा ने बताया।

नेटफ़्लिक्स ने नये ओरिजिनल, स्वदेशी मनोरंजन के साथ भारतीय दर्शकों को रिझाने की अपनी कोशिश जारी रखी है।

पिछले महीने अपना दूसरा सीज़न पेश करने वाले सेक्रेड गेम्स  की तरह ही बार्ड ऑफ़ ब्लड  को भी किताब से स्क्रीन पर लाया गया है, जो बिलाल सिद्दिक़ी की 2015 की बेस्टसेलर पर आधारित है।

इसके डायरेक्टर रिभू दासगुप्ता (टी3न, युद्ध) हैं और इसे शाहरुख़ ख़ान की रेड चिलीज़ इंटरटेनमेंट ने प्रोड्यूस किया है।

प्रतिस्पर्धी स्ट्रीमिंग सर्विस एमेज़ॉन प्राइम वीडियोज़ पर हाल ही में रिलीज़ हुई द फैमिली मैन  की तरह ही, इसमें भी जासूसी शामिल है।

दोनों में बस इतनी ही समानता है; दोनों शोज़ बिल्कुल अलग हैं।

मनोज बाजपाई की सीरीज़ की कहानी घरेलू और बाहर के भयानक जीवन के बीच के तालमेल पर आधारित है, जबकि बार्ड ऑफ़ ब्लड  एक कालिमामय स्पाय थ्रिलर है, जिसकी कहानी भारत, पाक़िस्तान, बलूचिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच घूमती है।

हालांकि मैंने सिद्धिक़ी का उपन्यास तो नहीं पढ़ा है, जिसे मेरे अंदाज़ में उन्होंने 20 वर्ष की उम्र में तब लिखा था जब वह मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में पढ़ रहे थे, लेकिन वेब सीरीज़ में काफ़ी पैनापन और गहराई देखी जा सकती है।

311 मिनट और सात एपिसोड्स में कही गयी बार्ड ऑफ़ ब्लड की कहानी -- जिसे मयंक तिवारी ने लिखा है -- कुछ दिलचस्प और मज़ेदार मोड़ तो लेती है, लेकिन दर्शकों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाती।

ऐसा लगता है जैसे बार्ड ऑफ़ ब्लड  अपने सीज़न 2 को लाने की उम्मीद में जान-बूझ कर कुछ बातें छुपा रही है और अपने सारे पत्ते नहीं खोल रही -- अंत में दिखाया गया ट्विस्ट इस बात का स्पष्ट संकेत देता है।

इस ज़बर्दस्ती की दुविधा के कारण किरदार और उनके उद्देश्य मार खा जाते हैं, और कई बार अधपके और कमज़ोर लगते हैं।

अगर मैं तुम्हें लूप में रखूं, तो तुम लूपहोल्स ढूंढने लगोगे, कहानी का एक किरदार जानकारी छुपाने की अपनी बात को सही बताते हुए कहता है।

शायद बार्ड ऑफ़ ब्लड  उसकी इस बात से पूरी तरह सहमत है।

कहानी एक मरते व्यक्ति की इच्छा को पूरा करने के लिये उसके शाग़िर्दों द्वारा किये गये एक अस्वीकृत बचाव मिशन पर आधारित है।  

अफग़ानी तालिबान द्वारा चार भारतीय एजेंट्स के पकड़े जाने के बाद, पहले अस्वीकार किये गये एक इंटेलिजेंस एजेंट कबीर आनंद (इमरान हाशमी) के पास अपनी स्कूल टीचर की नौकरी छोड़ कर अपना पहला फील्ड जॉब कर रही एक ऐनलिस्ट ईशा खन्ना (सोभिता धुलीपाला) और घर लौटने के लिये बेक़रार एक अंडरकवर एजेंट वीर सिंह (विनीत कुमार सिंह) के साथ एक लंबे, मुश्किल सफ़र पर निकलने के अलावा कोई चारा नहीं बचता।

कबीर अपने निजी कारणों से इसमें शामिल हुआ है।

शुरुआत में एक बुरे सपने में उसके एक असफल काम की यादें सामने आती हैं, जिसमें उसने अपने सहकर्मी (सोहम शाह) को खो दिया था, जिसका अफ़सोस उसका पीछा नहीं छोड़ता।

शेक्सपियर का सहारा लेना कबीर को राहत तो देता ही है, साथ ही सीरीज़ के सातों एपिसोड्स के नाम भी देता है, जो हैमलेट (मेरा अफ़सोस मेरे इरादों को हरा देता है) से शुरू हो कर ऑल्स वेल दैट एंड्स वेल (सबसे प्यार करो, कम लोगों पर भरोसा करो, किसी के साथ कुछ बुरा न करो)।

यह उस बुद्धिमानी को दिखाने का एक स्टायलिश अंदाज़ है, जो बार्ड की कहानी में वास्तविक रूप से मौजूद नहीं है, विषय के अभाव में बार्ड के शब्द खोखले लगते हैं।

कबीर और उसकी टीम लगातार एक के बाद एक गलतियाँ करती है और हादसों के चक्र में फँसी रहती है, फिर भी अपनी मंज़िल के करीब पहुंचती जाती है, क्योंकि सीरीज़ बनाने वाले यही चाहते थे, दूसरी ओर दुश्मन बहुत फलते-फूलते हैं, पर उनका काम दिखाई नहीं देता ऐसा समझना पड़ता है।

दुश्मनों की यह निष्क्रियता बीच-बीच में होश में आती है और कबीर को चुनौती देने तथा उसके सफ़र को रोमांचक बनाने के लिये बंदूकधारी गुंडे और गार्ड्स सामने आते रहते हैं।

बिल्कुल बॉलीवुड वाले अंदाज़ में एक डरावने पाक़िस्तानी जासूस (जयदीप अहलावत) के निर्विवाद नियंत्रण में दुश्मन में अच्छाई की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी है।

अपने कठपुतली जैसे वरिष्ठ अधिकारियों पर इस दुश्मन के प्रभाव और घिनौने तालिबान चीफ़ (दानिश हुसैन), काल्पनिक मुल्ला उमर और उसके खूंखार बेटे (आशीष निझावा) के साथ उसकी बात-चीत बार्ड ऑफ़ ब्लड  की कहानी में टकराव को दिखाती है।

बड़े पैमाने पर दिखाये गये भारत-पाक़िस्तान के भूराजनैतिक झगड़े का एक और भी दिलचस्प हिस्सा है बलूचिस्तान के आज़ादी अभियान को शामिल किया जाना।

लेकिन बार्ड ऑफ़ ब्लड  ने इसे बस ऊपरी तौर पर, छोटी सी प्रेम कहानी और परिवारवादी राजनीति दिखाने के एक घिसे-पिटे उपकरण के रूप में शामिल किया है।

सबसे सकारात्मक बात है बेहद भरोसेमंद कीर्ति कुल्हाड़ी का आत्मविश्वास से बढ़ाया गया एक कदम।

गंदी राजनीति और आतंकवाद की कहानी के हिसाब से, बार्ड ऑफ़ ब्लड  में हिंसा कम दिखाने का कारण समझ में नहीं आता।

आपको हज़ारों के ख़िलाफ़ तीन लोगों की इस लड़ाई में जोखिम, अत्यावश्यकता, तनाव और आतंक ज़्यादा महसूस नहीं होता।

पाँच से ज़्यादा घंटे किरदारों को उभार कर सामने लाने और कबीर, ईशा तथा वीर के बीच लगाव दिखाने के लिये काफ़ी होने चाहिये।

मज़ेदार बात यह है कि वे हमेशा एक टीम होने की बात तो करते हैं, लेकिन इस दावे को सही साबित करने के लिये कुछ नहीं करते।

कबीर के अलावा, किसी भी अन्य किरदार की भावनाओं को सामने नहीं लाया गया है।

लिंग भेद के साथ ईशा की लड़ाई जल्दबाज़ी में दिखाई गयी है और वीर की घर लौटने की चाह पर शायद ही कोई ज़ोर दिया गया है।

और बुरी ताकतों पर भी बहुत ही कम ध्यान दिया गया है।

हमें अहलावत की असिस्टंट के साथ उसके बिना प्यार के जिस्मानी संबंधों की झलक और तालिबान के प्रमुख के बच्चों से लैंगिक संबंध की ओर झुकाव जैसी चीज़ें दिखाई तो गयी हैं, लेकिन इन चीज़ों का कहानी में कोई योगदान नहीं है।

पथरीली दीवारों और धूल भरी सड़कों वाले उजाड़ इलाकों (लद्दाख और राजस्थान को पाक़िस्तान के अलग-अलग हिस्सों के रूप में दिखाया गया है) में बिखरी इस कहानी में कोई स्थिर लक्ष्य न होने के कारण, फ़ैसले लेने के साथ-साथ मुश्किल और जोखिम का वातावरण बनाने का काम काफ़ी हद तक अभिनेताओं पर छोड़ दिया गया है।

और उन्होंने हमें कतई निराश नहीं किया है।

और यही बात आपको अंदाज़ा लगाने में आसान इस घिसी-पिटी कहानी के आडंबर के बावजूद कहानी से जोड़े रखती है।

इमरान हाशमी का कठोर स्वभाव और भावनात्मक उबाल एक ऐसे जासूस की वास्तविक छवि प्रस्तुत करता है, जिसे लोगों की सोच से कहीं ज़्यादा जानकारी है।

हालांकि अपराधों की कालिख के बीच काम करने वाले व्यक्ति के हिसाब से सोभिता का किरदार कुछ ज़्यादा ही संयमित है, लेकिन उसने अपने आत्मविश्वास और सूझ-बूझ से हर जगह साबित किया है कि उसने यहाँ तक का सफ़र अपनी मेहनत से तय किया है।

विनीत ने अपने शानदार अभिनय से साबित किया है कि वह बहुत कम संभावनाएँ होने पर भी बहुत कुछ कर दिखा सकते हैं।

जयदीप अहलावत को चालबाज़ी भरे किरदारों के लिये नहीं जाना जाता है, उनकी ख़ासियत यह है कि उन्होंने इसे उबाऊ नहीं होने दिया है।

दानिश हुसैन की पश्तो भाषा पर पकड़ उतनी ही शानदार है, जितनी भद्देपन के बिना डरावना लगने की उनकी ख़ूबी। मैं चाहती थी उनके साथ बार्ड ऑफ़ ब्लड  और भी खौफ़नाक पलों में उतरे।

या जैसा कि वास्तविक बार्ड में कहा गया है, अच्छाई में बुराई है और बुराई में अच्छाई: इस धुंध और गंदी हवा में अपनी राह ढूंढते चलो।

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सुकन्या वर्मा
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