News APP

NewsApp (Free)

Read news as it happens
Download NewsApp

Available on  gplay

This article was first published 4 years ago
Rediff.com  » Movies » बादशाह पहलवान रीव्यू

बादशाह पहलवान रीव्यू

By प्रसन्ना डी ज़ोरे
September 15, 2019 12:09 IST
Get Rediff News in your Inbox:

बादशाह पहलवान  एक ज़बर्दस्त मनोरंजक फिल्म होने के साथ-साथ आपकी सोच को भी ललकारती है, प्रसन्ना डी ज़ोरे ने महसूस किया।

डायरेक्टर एस कृष्णा की बादशाह पहलवान  एक बेहद मनोरंजक फिल्म है, भले ही यह कन्नड फिल्म पैलवान  का हिंदी डब्ड रूप हो, जिसे मलयालम, तेलुगू और तमिल भाषाओं में भी रिलीज़ किया गया है।

मुख्य किरदारों में सुदीप और आकांक्षा सिंह - साथ ही अपनी पहली कन्नड़ फिल्म कर रहे सुनील शेट्टी - और सहायक किरदार में सुशांत सिंह के साथ बादशाह पहलवान  एक आदर्श बॉलीवुड फिल्म है।

यह ढेर सारे ऐक्शन, ड्रामा, मेलोड्रामा, प्यार, जुदाई से भरपूर एक प्रेम कहानी है, जिसमें एक सामाजिक संदेश भी है, जो आपके दिल पर एक बॉक्सर की तरह चोट पहुंचाता है।

एक अनाथ के रूप में जन्मे और सरकार (शेट्टी) - पहलवानों के ट्रेनर, जिनका सपना है अपने अखाड़े से राष्ट्रीय चैम्पियन निकालना - द्वारा पाला-पोसा गया कृष्णा उर्फ़ किच्चा सरकार की ज़िंदग़ी में एक ऐसे दृश्य में कदम रखता है, जो फिल्म की मुख्य थीम बनी रहती है: पिछड़े वर्गों के प्रति मुख्य किरदार की उदारता।

डायरेक्टर कृष्णा ने मुख्य जोड़ी के बीच रोमांस को बख़ूबी दिखाया है, और फिर प्लॉट को तब तक उथल-पुथल करते रहे हैं, जब तक किच्चा पहलवान किच्चा बॉक्सर नहीं बन जाता।

कहानी के उतार-चढ़ाव के बीच, आपको ड्रामा (सरकार और किच्चा के बीच), ऐक्शन (किच्चा और सुशांत सिंह के किरदार यानि कि विलेन राणा प्रताप के बीच) और रोमांस (आकांक्षा की रुक्मिनी और किच्चा के बीच की केमिस्ट्री सुहानी लगती है) का भरपूर डोज़ मिलता रहता है।

इसके ज़्यादातर गाने नीरस हैं, लेकिन पिछड़े वर्गों के बीच प्रतिभा को ढूंढने के विषय पर आधारित एक गंभीर संदेश के साथ डॉक्युमेंट्री के अंदाज़ में शूट किया गया ये ज़मीं के हैं तारे  गाना फिल्म का सबसे बेहतरीन हिस्सा है।

डायरेक्टर की मैं दाद देना चाहूंगा, जिन्होंने आपको एक रोमैंटिक-ऐक्शन फिल्म में बांध कर रखा और फिर चुपके से आपको ऐसे एक सीन में ले गये, जिसमें किच्चा सरकार को बताता है कि बॉक्सिंग लीग में उसके लड़ने का सिर्फ एक ही कारण है, पैसा।

चक दे! इंडिया और दंगल  के डायरेक्टर्स को शायद अफ़सोस होगा कि उन्होंने अपनी फिल्म में वो काम नहीं किया जो किच्चा ने अपनी बहुभाषी फिल्म में किया।

कृष्णा ने अपनी दो घंटे 45 मिनट लंबी फिल्म में 10-15 मिनट समाज की कमियों को दिखाने में बिता कर बहुत ही ख़ूबसूरत काम किया है, आम तौर पर हमारी फिल्मी दुनिया में इन चीज़ों की जगह नहीं होती।

स्क्रीन पर एक भी पल धीमा नहीं है, कृष्णा ने जहाँ एक ओर अपना जादू बिखेरा है, वहीं दूसरी ओर करुणाकरण की सिनेमैटोग्राफी भी ख़ूबसूरत है -- देहात का दृश्य, गानों में रंगीन कपड़े, अखाड़ों और बॉक्सिंग रिंग के ऐक्शन सीन्स -- सभी साथ मिलकर पर्दे पर ख़ूबसूरत मनोरंजन पेश करते हैं।

अभिनय की बात करें, तो सुदीप, आकांक्षा, सुनील शेट्टी और कबीर दुहान सिंह, विलेन के किरदार में टोनी ने अपने-अपने किरदार बख़ूबी निभाये हैं।

फिल्म के स्क्रीनप्ले ने इन किरदारों को और भी दमदार बना दिया है।

सुशांत सिंह ने कहीं-कहीं पर अपनी शैतानी मुस्कान और ज़रूरत से ज़्यादा छल-कपट के साथ हद कर दी है।

हालांकि फिल्म की कहानी अंत में एक अजीब मोड़ लेती है -- पूरी फिल्म में चैम्पियन पहलवान दिखाये जाने के बाद भी किच्चा के बॉक्सिंग मैचेज़ खेलने का कारण आपकी समझ में नहीं आता - लेकिन अंत में सब कुछ माफ़ हो जाता है, क्योंकि फिल्म के क्लाइमैक्स में ही टिकट के पूरे पैसे वसूल हो जाते हैं।

बादशाह पहलवान  एक ज़बर्दस्त मनोरंजक फिल्म होने के साथ-साथ आपकी सोच को भी ललकारती है।

Get Rediff News in your Inbox:
प्रसन्ना डी ज़ोरे
Related News: 1