लेखकों ने बिना नाम लिये बड़ी ही समझदारी से कुछ राजनेताओं पर निशाना साधा है, रमेश एस. ने बताया।
70 के दशक में आंधी, किस्सा कुर्सी का और नसबंदी जैसी फिल्में आयी थीं जो उस समय के राजनैतिक माहौल पर आधारित थीं।
ये फिल्में सीधे किसी राजनैतिक पार्टी या नेता का नाम लिये बिना अपने मुद्दे को बख़ूबी पेश करने में सफल रही थीं।
लेकिन अब फिल्ममेकर्स सीधे दंगों, बँटवारे, युद्ध, सेना और राजनैतिक विवादों पर फिल्म बनाने की हिम्मत करने लगे हैं।
द ताशकेंट फाइल्स ऐसी ही एक फिल्म है। यह भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु पर सवालों के चारों ओर घूमती है।
इसमें मुख्य किरदार है एक युवा राजनैतिक पत्रकार रागिनी फुले (श्वेता बासु प्रसाद) का। एक अंजान कॉल और शास्त्री की मौत से जुड़े कुछ मूल तथ्यों से प्रेरित होकर रागिनी अपने अखबार में कुछ लेख लिखती हैं।
इन लेखों का असर कुछ ऐसा होता है कि सरकार को विपक्षी नेता श्याम सुंदर त्रिपाठी (मिथुन चक्रवर्ती) के नेतृत्व में एक समिति बनानी पड़ती है। समिति को छान-बीन करके शास्त्री की मौत के पीछे किसी तरह के षड्यंत्र का पता लगाने की ज़िम्मेदारी दी जाती है।
स्क्रीनप्ले -- ज़रूर इसके पीछे काफ़ी रीसर्च किया गया है -- बख़ूबी बंधा हुआ है, और तथ्यों को कल्पना से जोड़े रखता है।
द ताशकेंट फाइल्स में असली फुटेज के साथ-साथ राजनैतिक कथनों, अखबार की हेडलाइन्स, लेटर्स, किताबों और लेखों का इस्तेमाल किया गया है, जिससे कहानी वास्तविकता के करीब लगती है।
फिल्म के दूसरे हाफ़ में कई नये खुलासे किये गये हैं, जो लोगों को चौंका देते हैं। लेकिन दूसरे हाफ़ तक पहुंचने के लिये, आपको उबाऊ पहले हाफ़ को झेलना पड़ता है।
समिति में होने वाले वाद-विवाद और चर्चाऍं दिलचस्प भी हैं और रोमांचक भी; ये फिल्म बासु चैटर्जी की एक रुका हुआ फ़ैसला की यादें ताज़ा कर देती हैं।
पंकज त्रिपाठी, पल्लवी जोशी, मिथुन चक्रवर्ती और श्वेता बासु प्रसाद के बीच फिल्माये गये कुछ सोलो दृश्य लाजवाब हैं। दुःख की बात है कि इनका असर श्वेता के साइडट्रैक के कारण कम हो जाता है, जो फिज़ूल में ठूंसा हुआ लगता है।
डायरेक्टर को अपना ट्रम्प कार्ड खोलने से पहले अंत तक रुकना चाहिये था।
फिल्म में और भी कुछ कमियाँ हैं।
लेखकों ने बिना नाम लिये बड़ी ही समझदारी से कुछ राजनेताओं पर निशाना साधा है। हैरत की बात है कि उन्होंने अपनी ही थ्योरीज़ को अवास्तविक बता कर खुद को ही ग़लत भी साबित किया है। इससे फिल्म एक राजनैतिक विचारधारा से भटक कर सोशल मीडिया की अफ़वाह का रूप ले लेती है।
द ताशकेंट फाइल्स आज के राजनैतिक माहौल को फिल्म में ज़बर्दस्ती लाने की कोशिश करती है, जो बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
छोटी-छोटी बातों को कुछ ज़्यादा ही लंबा खींचा गया है। इसकी जगह निर्माताओं को फिल्म का रनिंग टाइम कम करना चाहिये था।
कुछ सीन्स में लाजवाब लगने वाले ऐक्टर्स कुछ सीन्स में बहुत ही घटिया प्रदर्शन करते दिखाई देते हैं।
फिल्म में गानों की कोई जगह नहीं है, लेकिन इसका बैकग्राउंड म्यूज़िक कई जगह कानों में चुभता है।
शास्त्री के साथ-साथ फिल्म में होमी भाभा, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, इमरजंसी का दौर, शीत युद्ध और अन्य राजनैतिक घटनाओं का ज़िक्र है।
कुछ डायलॉग्स बेहद दमदार हैं।
मिथुन चक्रवर्ती, श्वेता बासु प्रसाद और पंकज त्रिपाठी ने अपने किरदार बख़ूबी निभाये हैं।
मंदिरा बेदी और पल्लवी जोशी ने अच्छा साथ दिया है।
राजेश शर्मा, प्रकाश बेलवडे और अन्य अभिनेताओं का प्रदर्शन भी अच्छा है।
लेकिन नसीरुद्दीन शाह और विनय पाठक अपनी छाप नहीं छोड़ पाये हैं।
द ताशकेंट फाइल्स तेज़ और धमाकेदार मूवी के शौक़ीन लोगों के लिये नहीं है; लेकिन मुद्दों पर बनी प्रभावशाली फिल्में पसंद करने वालों को यह मूवी ज़रूर पसंद आएगी।