रितेश बत्रा को ढेरों दुआएँ, सुकन्या वर्मा लिखती हैं।
गेटवे ऑफ़ इंडिया की भीड़-भाड़ में खड़ी ढेर सारी जेटीज़ में से किसी में भी सवार हो जायें, आप ख़ुद को बॉम्बे की हवाओं से बात करता पाएंगे।
यह कोई झूठी बात नहीं है, और आप देखेंगे कि कैसे धीमे हवा के झोंके मिलोनी (सान्या मल्होत्रा) से कुछ कह जाते हैं, और उसके भटकते मन को फिर से किनारे पर लाते हैं।
गेटवे का अब अपना कोई ग्लैमर नहीं है। हमने जो नज़ारा परिंदा की लड़ाई में और बॉम्बे की भगदड़ में देखा था; उस वास्तविक, अद्भुत ख़ूबसूरती (टिम गिलिस और बेन कचिन्स द्वारा ली गयी तसवीरें) की जगह अब लोगों की भीड़-भाड़ और पर्यटकों के शोर ने ले ली है।
हालांकि रफ़ी (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) इस शहर में बसे लाखों गुमनाम चेहरों में से एक का किरदार निभा रहे हैं, लेकिन उनके काम करने की जगह यहाँ की सबसे मशहूर और तसवीरों में सबसे ज़्यादा कैद की गयी जगहों में से एक है।
ताज और गेटवे ऑफ़ इंडिया की तसवीरें बेचने वाले इस स्ट्रीट फोटोग्राफर की आवाज़ कई लोग अनसुनी कर देते हैं, और तभी मिलोनी कहानी में आती हैं।
रितेश बत्रा की फोटोग्राफ़ रफ़ी, मिलोनी और बॉम्बे की दिल को छू लेने वाली कहानी है।
भजिया और बारिश, पुरानी इमारतें और छोटे-छोटे घर, बर्फ के गोले और ईरानी कैफ़ेज़, हँसाने वाले डॉक्टर्स और चारों ओर फैले कोचिंग क्लासेज़, गंदे से सिंगल स्क्रीन थिएटर्स और मोल-भाव वाले बाज़ार, अपने गाँव की बात छेड़ने वाले बातूनी कैब ड्राइवर्स हों या बिन मांगे सलाह देने वाले समझदार लोग, फोटोग्राफ़ में इस शहर की हर बात को बख़ूबी पिरोया गया है।
कभी कामवाली की अपने घर की यादों में, तो कभी एक पारसी आदमी और कैम्पा-कोला से प्यार करने वाली उसकी पत्नी की नेकी में दिखता है कि फोटोग्राफ की कहानी इस शहर की अपनी कहानी है।
यहाँ का जोश और उमंग से भरा कल्चर और यहाँ के तरीके रफ़ी और मिलोनी को एक-दूसरे के करीब लाते हैं।
लंचबॉक्स, द सेन्स ऑफ़ ऐन एंडिंग और अवर सोल्स ऐट नाइट में अपनी संवेदनशील फिल्म-मेकिंग का उदाहरण पेश करने वाले बत्रा अपने ऐक्टर्स से कैमरा को भूल जाने के लिये कहते हैं। इसमें कोई भी चीज़ बनावटी या दिखावटी नहीं लगती।
फोटोग्राफ़, जिसे इस साल के सनडांस फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर किया गया था, तब शुरू होता है, जब रफ़ी मिलोनी की एक तसवीर क्लिक करता है।
रफ़ी इस तसवीर की एक कॉपी गाँव में अपनी दादी (फारुख जाफर) को यह सोच कर भेज देता है, कि इसके बाद दादी उसे शादी के लिये तंग करना बंद कर देंगी, लेकिन उसका पासा उल्टा पड़ जाता है।
इसके बजाय, वे नूरी से मिलने के लिए उसके दरवाजे पर पहुंचती है - यह नाम उसने उस समय रेडियो पर चल रहे गीत से लेकर रख दिया था।
रफ़ी कुछ और लोगों के साथ एक कमरे में रहता है, जो पहले किसान थे, और सभी अपने घर, बीवी-बच्चों को छोड़ कर या तो कर्ज़ चुकाने के लिये या फिर बेहतर ज़िंदग़ी के लिये यहाँ आ बसे हैं।
ज़िंदग़ी बेहद मुश्किल है, लेकिन हँसी-मज़ाक और कुछ डराने वाले पल इसे मज़ेदार बना देते हैं।
नूरी तो रफ़ी की बनाई इस कहानी के लिये बिल्कुल सही है, लेकिन मिलोनी नहीं।
20 साल के आस-पास की उम्र की, विनम्र चार्टर्ड अकाउंटंसी स्टूडेंट, मिलोनी एक क्लास टॉपर है, जिसकी तसवीरें शहर भर में उसके कोचिंग क्लासेज़ के विज्ञापन वाले हर बोर्ड पर लगी हैं।
उसके मिड्ल-क्लास गुजराती परिवार को जितनी दिलचस्पी उसकी पढ़ाई में है, उतनी ही उसकी शादी किसी एनआरआइ, एमबीए-क्वॉलिफाइड लड़के से कराने में भी है।
लेकिन ‘गेटवे के साथ ताज’ का फोटोग्राफ उसकी स्टडी टेबल, डाइनिंग टेबल और क्लासरूम टेबल के बीच भटकती बेजान ज़िंदग़ी में कुछ नया रंग घोल देता है।
ऐसा लगता है जैसे उसे कोई पहचान मिल गयी हो।
मिलोनी एक बेहद दबी-दबी, सहमी सी रहने वाली लड़की है।
कहानी में दिखाई देता है, कि कैसे उसकी कलाकारी पढ़ाई के बोझ तले दब गयी है।
अच्छा सोचने वाले माता-पिता कई बार काफी कठोर भी हो जाते हैं, और उन्हें इस बात का पता भी नहीं होता। हालांकि फोटोग्राफ में किसी भी तरह का तनाव नहीं दिखाया गया है।
बत्रा के प्यार भरे, गंभीर अंदाज़ में, विरोध के लिये हमेशा किसी आवाज़ या लड़ाई-झगड़े की ज़रूरत नहीं होती। कई बार विरोध ख़ामोशी से भी होता है, बेहद ख़ामोशी से।
और जब रफ़ी अपनी हालत मिलोनी को बताता है, तो मिलोनी को रोल-प्लेइंग में अपनी नीरस ज़िंदग़ी से निकलने का मौका दिखाई देता है।
पहली बार उसके चेहरे पर नयी खुशी नज़र आती है, जब वो अपनी झूठी कहानी रफ़ी की दादी को बताती है।
और उसे पुराने कपड़े और अखबार में लिपटी पुरानी पायल की एक जोड़ी ईनाम में मिलती है।
हालांकि उसकी कामवाली बाई (गीतांजलि कुलकर्णी का शानदार किरदार) भी ऐसी ही पायल पहनती है, लेकिन मिलोनी को इससे फर्क नहीं पड़ता।
पूरी ज़िंदग़ी किसी और की सोच पर जीने के बाद, धर्म और दर्जे का अंतर उसकी भावनाओं के उमड़ते सागर को रोक नहीं पाता।
वही भावनाऍं, जो उसकी रहस्यमय ख़ामोशी में छुपी रह जाती हैं।
इस किरदार के लिये सान्या मल्होत्रा को लेना बत्रा का बिल्कुल सही फैसला था। यह परफॉर्मेंस बिल्कुल उसके दिल से निकल कर आयी है।
मिलोनी की सादग़ी और उसके छोटे-छोटे सपने अमीरों के बेमतलब शौक जैसे हो सकते हैं, लेकिन सान्या के किरदार में ये सपने एक हारी, दबी-सहमी लड़की की सोच को सामने लाते हैं, जिसने ज़िंदग़ी में कभी अपने मन की नहीं सुनी है।
नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी ने एक आम आदमी का किरदार निभाया है, लेकिन इसमें अपना एक अनोखापन है।
उन्होंने रफ़ी के किरदार में एक अलग जान फूंक दी है और फोटोग्राफ के सॉफ़्टी और कुल्फी वाले अंतर को उनके कोमल और ख़्याल रखने वाले व्यक्तित्व में ख़ूबसूरती से परोसा है।
उनकी तेज़-तर्रार दादी, चुलबुली फारुख जाफर के साथ उनके सीन्स एक हल्के-फुल्के रोमांस की कहानी में मस्ती भर देते हैं। यही मस्ती जिम सर्भ के सख़्त ट्यूटर के किरदार और विजय राज़ के छोटे से कैमियो में भी नज़र आती है।
लेकिन फोटोग्राफ की कहानी तब एक नयी ख़ूबसूरती को छू लेती है, जब मिलोनी के साथ एक सीन में स्ट्रीट फोटोग्राफर रफ़ी के लिये गायक रफ़ी की आवाज़ में तीसरी मंज़िल का तुमने मुझे देखा होकर मेहरबाँ गाना कानों में रस घोल देता है।
ये आपके नज़रिये पर निर्भर करता है की फोटोग्राफ ने आपको निराश किया या मोहित किया।
क्योंकि तसवीर एक पल की होती है, ये भविष्य का वादा नहीं करती, बस एक पल को खुद में हमेशा के लिये कैद कर लेती है।
इसका कोई कल, आज और कल नहीं होता, ये हमेशा ज़िंदा रहती है।
यही बत्रा की नाजुक छोटी सी रचना की सुंदरता है।
ये आपसे आने वाले कल का नहीं, यादगार लम्हों का वादा करती है।