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Rediff.com  » Movies » दे दे प्यार दे रीव्यू: आधुनिक परिवार का उपहास!

दे दे प्यार दे रीव्यू: आधुनिक परिवार का उपहास!

By सुकन्या वर्मा
May 17, 2019 23:53 IST
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'आपको सारा अली ख़ान के इंटरव्यू में इन मुद्दों पर इससे ज़्यादा समझदारी नज़र आयेगी,' सुकन्या वर्मा ने कहा।

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क्या मैंने सचमुच एक हिंदी फिल्म में 'मिसॉजिनिस्ट (स्त्री-द्वेषी)' शब्द का ज़िक्र सुना? इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है, जब इसके को-प्रोड्यूसर और लेखक लव रंजन हैं, जिनके बारे में ये शब्द अक्सर इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि यह सेक्सिज़्म के मामले में उनकी ज़्यादा मशहूर फिल्मों (प्यार का पंचनामा  सीरीज़, सोनू के टीटू की स्वीटी) से काफी पीछे है, लेकिन अकिव अली द्वारा एडिट और डायरेक्ट की गयी इस फिल्म में कोई ज़्यादा अंतर नहीं दिखाई देता।

हालांकि इस रॉम-कॉम को आधुनिकवादी दिखाने की पूरी कोशिश की गयी है, जिसमें 50 साल के मर्द और 26 साल की लड़की के बीच संबंध हैं, और बाद में वो उसे अपने माता-पिता, पिछली पत्नी और बच्चों से मिलाने ले जाता है, लेकिन न तो इस फिल्म में अपनी कहानी को जायज़ दिखाने का दम है और न ही अपने किरदारों को सही दिखाने की बारीकी।

हर कदम पर ढोंग और झूठ से भरी दे दे प्यार दे  की कहानी संकोच और झूठ के पुराने ढर्रे पर चलती हुई आधुनिक परिवार के उपहास का रूप ले लेती है।

फिल्म की शुरुआत में लंदन में एक पैसे वाला आदमी आशीष (अजय देवगन) अपने दोस्त की बैचलर पार्टी में एक स्ट्रिपर से मिलता है। उसे पता चलता है कि वो असल में कोई स्ट्रिपर नहीं है, बल्कि उसके दोस्त की होने वाली पत्नी की सहेली है, जो उसके दोस्त की वफ़ादारी को परखने आई है।

इसके बाद उसके दोस्त को कुछ 'महसूस' नहीं होता और इन सब चीज़ों का मज़ा ले रहा आशीष आयशा (रकुल प्रीत सिंह) की तरफ स्वीट होने लगता है, जो स्ट्रिपर-नहीं-बल्कि-इंजीनियर-और-पार्ट-टाइम बारटेंडर है। 'तुम मेरे साथ कर सकती थी, पर तुमने किया नहीं?' जैसी लाइन्स या बार-बार उसके 'हॉट' होने की तारीफ़ करना शायद काम कर जाये।

आशीष का थेरेपिस्ट दोस्त, मज़ेदार जावेद जाफ़री के मन में उनके मई-दिसंबर के रोमांस को लेकर शक़ है। आयशा का ठुकराया हुआ बॉयफ्रेंड (सनी सिंह) भी अभी उसकी ज़िंदग़ी से पूरी तरह निकला नहीं है। बार-बार 'अंकल' वाली खिंचाई हमें उन दोनों की उम्र का अंतर याद दिलाते रहने का काम करती है।

लेकिन अजय देवगन की 'सिंघम' वाली मर्दानगी दिखाने वाले दृश्य हमें इस पर ध्यान न देने के लिये कहते हैं। खींच-तान का दौर चलता रहता है और समझदारी भरे एक पल में आशीष मानता है कि, 'तुम्हारा कल मेरे कल से बहुत ज़्यादा है'

लेकिन जब माइकल डगलस और कैथरीन ज़ीटा-जोन्स कर सकते हैं, सैफ़ अली ख़ान-करीना कपूर कर सकते हैं, तो फिर आशीष-आयशा प्यार क्यों नहीं कर सकते?

सीन लंदन की समृद्ध गलियों से तुरंत कुल्लू-मनाली की पहाड़ियों के बीच बनी एक आलीशान प्रॉपर्टी पर आ जाता है, जहाँ आशीष आयशा को अपने छूटे हुए परिवार से मिलाने की सोचता है। कहना मुश्किल है कि किसकी आवाज़ कानों में ज़्यादा चुभती है, बैकग्राउंड स्कोर की या उसके शोर-शराबे वाले परिवार की ।

इसी शोर-शराबे के बीच, आयशा को वो बात समझ में आती है, जो हमें पहले ही आ चुकी थी, -- कि आशीष कायर है और फिर दे दे प्यार दे  में आयशा और उसकी पत्न्नी मंजू (तबू) के बीच बेमतलब की, नकली लगने वाली तू तू - मैं मैं शुरू हो जाती है।

पुराने और नये के बीच जंग छिड़ जाती है और दो काबिल, स्वतंत्र महिलाऍं कार और म्यूज़िक जैसी बातों पर एक-दूसरे की खिंचाई में लग जाती हैं। फिल्म का ह्यूमर कमज़ोर और नीरस है।

इसके साथ ही, आशीष और उसकी नकचढ़ी बेटी (जिसका अस्वाभाविक अभिनय उसे चुड़ैल जैसा दिखाता है), उसके पिछड़ी सोच वाले सास-ससुर, गर्लफ्रेंड के प्यार में पागल उसके बेवकूफ़ बेटे, मंजू के ऑर्गैनिक फूड के दीवाने प्रेमी (जिमी शेरगिल एक बार फिर हारे हुए प्रेमी के किरदार में) - अली के बीच के अनसुलझे मसले पहले से ओवरलोड हो चुकी इस कहानी में यहाँ-वहाँ से अपनी जगह बनाने की कोशिश करते रहते हैं।

इन सब से भी ज़्यादा अजीब लगता है बदमिजाज़ आलोक नाथ के सामने उन्हें सही फैसला लेने की बात करते देखना।

दे दे प्यार दे  पूरी तरह यहाँ-वहाँ से उठाई गयी कहानी लगती है। ये कोई कॉपी तो नहीं है, लेकिन काफी हद तक इसकी सोच इसी थीम की फिल्म इट्'स कॉम्प्लिकेटेड  का एक कमज़ोर किया हुआ रूप लगती है। या फिर काफी कुछ फ्रेंड्स  से भी उठाया गया लगता है।

इसमें कभी मोनिका और रिचार्ड के बीच की चीज़ें दुहराने की उम्र निकल जाने की बातचीत की झलक दिखती है, तो कभी रेचल का रॉस की कम उम्र की गर्लफ्रेंड को उसकी मौजूदग़ी की परवाह किये बिना रॉस से सुलह कर लेने के लिये समझाना दिखाई देता है।

इन सबके बावजूद अगर दे दे प्यार दे देखने लायक है, तो उसका कारण है तबू। उसकी हर चीज़ लाजवाब है। उसकी स्टाइलिंग के क्या कहने। उसकी टाइमिंग पर्फेक्ट है। वह सबसे ज़्यादा समझदार है, और उसी ने सबसे अच्छे सीन्स दिये हैं। उसके पिघलने का एक सीन दिल को छू जाता है। लेकिन उसकी मेहनत बर्बाद हो जाती है जब दे दे प्यार दे  चीज़ों को बेहद बेवकूफ़ाना तरीके से सामने रखती है।

अजय देवगन के साथ उसकी केमिस्ट्री अच्छी है। लेकिन मूवी इस केमिस्ट्री की ख़ूबसूरती को बाहर लाने की जगह उसी पर अपना पूरा वज़न लाद देती है। उनके बीच का रिश्ता टूटी हुई शादी का नहीं, बल्कि दो बिछड़े दोस्तों का लगता है, जिन्हें एक-दूसरे की फिक्र है।

अजय देवगन तबू के साथ कितने भी अच्छे लगते हों, लेकिन अपने किरदार में बिल्कुल फिट नहीं होते। उनके चेहरे के भावों में वो मासूमियत नहीं है जो उन्हें बेसहारा और मजबूर दिखाये।

रकुल प्रीत सिंह अपने रोल में काफ़ी खुशमिजाज़ लगती हैं, जिसमें थोड़े तीखे तेवर ज़रूरी थे।

फिल्म को ज़रूरत थी एक बेहतर लिखी हुई कहानी की, जिसमें औरत को कार के इंजन और डिज़ाइन की तरह नहीं दिखाया जाता, जहाँ उसे हर बात के लिये माफ़ी और समझौते नहीं करने पड़ते जब मर्द की एक ही लाइन उसकी हर ग़लती की माफ़ी के लिये काफ़ी हो। तब शायद फिल्म से कुछ सीख मिलती।

यहाँ पर तो हर कोई बस अपने-अपने भाषण देकर निकल जाता है, और उनकी हर मुश्किल या तो आसानी से सुलझ जाती है, भुला दी जाती है या उसे छुपा दिया जाता है।

आपको सारा अली ख़ान के इंटरव्यू में इन मुद्दों पर इससे ज़्यादा समझदारी नज़र आयेगी।

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सुकन्या वर्मा
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