'तेज़ हँसी-मज़ाक, शुद्ध देसी छींटा-कशी, ताज़ग़ी भरे छिछोरेपन और छोटे शहर की मज़ेदार बोल-चाल और रूढ़िवाद का मज़ेदार ताल-मेल।' सुकन्या वर्मा ने बाला की तारीफ़ में कहा।
एक गंजा आदमी कई काले दर्शकों के सामने अपनी विग निकालता है, जो वहाँ उससे एक फ़ेयरनेस क्रीम का प्रचार सुनने के लिये जमा हुए हैं। वह अपने पाखंड का सामना करते हुए उनकी समस्या का समाधान पेश कर रहा है। फिर भी भीड़ हँस पड़ती है।
यह घबराहट वाली हँसी है या मज़ाक उड़ाने वाली? यह तो असल में बस हा हा है। कुछ लोग मज़ाक और भेदभाव का विषय होने के बावजूद ख़ुद पर हँस लेते हैं। कुछ हँसते हैं क्योंकि उन्हें बात मज़ेदार लगती है। कुछ हँसते हैं क्योंकि इससे कोई नुकसान नहीं है। कुछ उस पल को महसूस करके हँसते हैं। और कुछ हँसते हैं क्योंकि हँसने से ज़्यादा कुछ किया भी नहीं जा सकता।
सार - मज़ाक तो होगा ही। हमने जीवन में कभी न कभी किसी न किसी का मज़ाक उड़ाया है और मज़ाक बने भी हैं। कुछ इससे उबर आते हैं, तो कुछ नहीं। दूसरों की दिखावट पर हँसने में हर व्यक्ति की दिलचस्पी जानना कोई असंभव काम नहीं है।
लेकिन इन सभी चुटकुलों पर ज़ोर से हँसना अन्य सभी चीज़ों को दबा देता है। ख़ुद के साथ ऐसा समझौता आप तभी कर सकते हैं जब आपको ख़ुद से बहुत ज़्यादा प्यार हो।
ढीठ स्कूल के लड़के से लेकर बड़े होकर ख़ुद से संतुष्ट इंसान बनने तक का बाला (आयुष्मान खुराना) का सफ़र ही अमर कौशिक के कानपुरिया दंत कथा का आधार है।
हालांकि यह कहानी उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर की है, जहाँ हर दूसरी उंगली में आपको मोती या मूंगा दिखाई देगा, लेकिन यहाँ के लोगों पर बॉलीवुड की छाप आप आसानी से महसूस कर सकते हैं। ख़ास-तौर पर मुख्य नायक का शाहरुख़ ख़ान से प्यार और जगह-जगह अमिताभ बच्चन और कई अन्य अभिनेताओं की नकल इस कहानी को बेहद फिल्मी अंदाज़ में परोसती है।
देश बिग बी के करियर के पचास वर्ष पूरे होने की ख़ुशी मना रहा है, और इस फिल्म का वह दृश्य ख़ास तौर पर अमिताभ बच्चन को समर्पित है, जिसमें बाला और उसके शराब के नशे में धुत्त दोस्त (जावेद जाफ़री मज़ेदार हैं, तो अभिषेक बैनर्जी धमाकेदार) बारी-बारी से कभी-कभी, मुक़द्दर का सिकंदर और पिंक की लाइनें बोलते हैं और हमें हमारी ज़िंदग़ी पर बच्चन की छाप की झलक दिखाते हैं।
पहले बाला क्लासरूम में अपने घुंघराले बालों और ख़ूबसूरत मुस्कान से होश उड़ाने वाला, और हिट बॉलीवुड डायलॉग्स बोल कर लोगों का दिल जीतने वाला लड़का हुआ करता था। लेकिन हास्यास्पद चित्रकारी के साथ अपने क्लास टीचर के उड़ते बालों का मज़ाक बनाने वाले बाला को कर्म का फल भुगतना पड़ता है जब टकले, टकले गाने के साथ कैमरा में उसके उड़ते बालों की पतझड़ दिखाई देती है।
हाल ही में ख़ुद को लेकर चिंतित गंजे मर्दों के ही विषय पर बनी उजड़ा चमन और बाला के बीच में अंतर यह है कि बाला ख़ुद को एक दर्द भरा संयोग बता रहा है, पैरोडी नहीं।
कौशिक की यह फिल्म तेज़ हँसी-मज़ाक, शुद्ध देसी छींटा-कशी, ताज़ग़ी भरे छिछोरेपन और छोटे शहर की मज़ेदार बोल-चाल और रूढ़िवाद का मज़ेदार ताल-मेल है। लेकिन हर समय , यह अपने किरदारों के प्रति सहानुभूति ज़रूर दिखाती है।
बाला इस स्थिति को लेकर बेहद परेशान रहता है और स्त्री के डायरेक्टर के साथ-साथ उसके बेहद कुशल लेखक निरेन भट्ट इस बात को एक पल के लिये भी भूलते नहीं हैं। जब भी बाला ख़ुद को आईने में देखता है या सिर पर बाल उगाने की नाकाम कोशिशें करता है, हमें उसकी परेशानी साफ़ दिखाई देती है। यह बात कहनी ज़रूरी नहीं है कि उसकी हर कोशिश में हमें उसपर दया के साथ-साथ हँसी भी आती है।
उतावलेपन से लेकर गोबर तक, बाला सब कुछ आज़मा लेता है। कोई भी चीज़ हमें हँसाने से ज़्यादा असर नहीं दिखा पाती।
बाला का नन्हा भाई (नज़रें अपनी ओर खींचने वाला धीरेंद्र गौतम) यह कह कर उसे खरी-खोटी सुनाता है कि भाई होने के नाते सारे ग़लत काम उसे ही करने पड़ते हैं और उसकी शिकायत उतनी ही मज़ेदार लगती है, जितनी बाला के मुंह से अपने पिता (सौरभ शुक्ला) की निंदा, जिन्होंने उसे गंजापन विरासत में दिया है।
ये साधारण, मामूली लोग हैं, जिनकी पहचान उनकी आदतें हैं। बाला बातचीत में हमेशा भारत के दो सबसे बड़े टाइमपास के साधनों को घुसाता रहता है। जहाँ डैड क्रिकेट के उदाहरण देने में उस्ताद हैं (जितने विकेट बचे हैं, उनसे इनिंग बना लो), वहीं बेटा बॉलीवुड का महारथी है (बाला की राकेश-ऋतिक रोशन टिप्पणी पर ग़ौर ज़रूर फ़रमायें)।
चिंतित और थोड़े अपराध-बोध से ग्रस्त पिता के रूप में सौरभ शुक्ला का प्यार इतना सहज है कि शायद आपका उस ओर ध्यान भी न जाये। ससुर (उमेश शुक्ला) की सही समय पर की गयी टिप्पणियाँ बाला के परिवार की ख़ूबसूरत तसवीर को और फुर्तीला बनाती हैं।
दिन में एक फ़ेयरनेस क्रीम सेल्समैन और रात में एक अभिलाषी स्टैंड-अप की भूमिका निभाते बाला के जीवन में कुटिलता की कोई जगह नहीं है, जो उसके हँसी-मज़ाक और हाव-भाव में झलकती है। अपनी कमियों से नज़र न मिला पाने वाला यह इंसान सोचता है कि यही चिंता सारी दुनिया को खाये जा रही है और शायद वह अपनी चाची (सीमा पाहवा) के कहने पर अपने काले बचपन के दोस्त और पड़ोस की वकील लतिका (भूमि पेडणेकर) के प्रोफाइल पिक्चर्स को लाइटनिंग फिल्टर्स से गोरा बना कर ख़ुद को एक समाज सेवक मानता है।
चाची को अपने चेहरे पर उगने वाले बालों को लेकर थोड़ी परेशानी तो है, लेकिन सीमा पाहवा के शानदार परफॉर्मेंस के कारण वे हास्यास्पद नहें लगते। हालांकि वह अपनी भतीजी जितना बोलती तो नहीं हैं, लेकिन वह भी अपने रूप से संतुष्ट नज़र आती हैं।
काश बाला भी ऐसा कर पाता। भूमि पेडणेकर के अभिनय की दाद देनी होगी, लेकिन फिल्म में उसे काले-भूरे शेड्स में हमारे सामने पेश करने पर दिया गया ज़ोर हमारा ध्यान अपनी शर्तों पर जी रही महिला के रूप में उसके दमदार किरदार से भटका देता है। वास्तविकता का अभाव और भी साफ़ पता चलता है, जब वह कुदरती काले लोगों के साथ नज़र आती है।
उसके मज़बूत व्यक्तित्व और अच्छे इरादों के बावजूद, उसका चिपचिपा मेकअप बाला के ख़द से संतुष्ट रहने के सिद्धांत को नुकसान ही पहुंचाता है।
लेकिन बाला को बेहतर बनाने वाली चीज़ों की संख्या कहीं ज़्यादा है। जब बाला अपनी झिझक को पीछे छोड़ रोमांस की ओर कदम बढ़ाता है, तो उसके बाल सिंड्रेला की काँच की चप्पल जैसे बन जाते हैं, उन्हें खो दिया, तो सच सामने आ जायेगा।
बाला का बॉलीवुड के लिये प्यार और परी मिश्रा (यामी गौतम) की ख़ूबसूरती, टूटी-फूटी अंग्रेज़ी और सोशल मीडिया की लत एक-दूसरे में घुल जाते हैं। इस स्वांग को दोनों सहज ही गले लगा लेते हैं जब कानपुर का मोस्ट 'एडिबल बैचलर' लखनऊ की 'सुपर मॉडल' से मिलता है, और दोनों की टिकटॉक वाली यारी वायरल होने की चाह के साथ उफ़ान मारने लगती है।
उनका आकर्षण अद्वितीय है, 90 के दशक के प्रसिद्ध गानों के मज़ेदार कसीदों से ही आपके पूरे पैसे वसूल हो जाते हैं। परी बाला से कहती है कि तुम एक फिल्म की तरह हो -- मज़ेदार और दिलचस्प।
लेकिन बाला का सच वह नहीं है, जिसकी उसे उम्मीद है। जैसा कि उसके पिता ने दिल को छूने वाले एक पल में कहा है, असली और असलियत का ज़्यादा मेल नहीं होता ज़िंदग़ी में। हालांकि फिल्म जल्द ही बाला की बेईमानी को तो माफ़ कर देती है और सामाजिक लांछन से बचने की एक नाकाम कोशिश बता कर उसका बचाव करती है, लेकिन परी के घमंड को काले शीशे से देखा गया है। जो भी हो, यह बात परी की इस समझ को और भी बुलंद कर देती है कि वह कौन है और उसे क्या चाहिये।
यामी गौतम ने परी का किरदार अब तक के बेहतरीन चस्के के साथ निभाया है। थोड़ी बेसुध, थोड़ी भ्रमित परी के किरदार की ज़रूरी और शुद्ध बनावटी चमक उसे आकर्षक भी बनाती है और हमारा दिल भी तोड़ती है।
एक बार फिर हमारे आयुष्मान खुराना एक शर्मनाक समस्या, एक सताने वाले झूठ और दिल टूटने की संभावना से जूझ रहे हैं। और इस अभिनेता ने एक आदमी की सच्ची समस्याओं और हम सभी द्वारा बनाये गये आदर्शों तथा उनपर खरे न उतर पाने की कमज़ोरी को दिखाने के लिये SRK से लेकर बॉबी देओल और कमल सदाना तक को हमारे सामने पेश किया है।
यह कोई नया परफॉर्मेंस भले ही न हो, लेकिन यह शानदार परफॉर्मेंस ज़रूर है। उन्हें उठने, गिरने और ख़ुद को सामने वाले की नज़रों में उभारने का जादुई फॉर्मुला मिल चुका है, चाहे वो नज़रें उन्हें देखने वाले दर्शकों की हों या फिर फिल्म में उनके किरदार की आँखों से दिखने वाले लोगों की।