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एक लड़की, जिसने फुटबॉल खेलने के लिये घर छोड़ दिया

August 30, 2019 14:17 IST

'मैंने फुटबॉल खेलने का अपना सपना तो पूरा कर लिया है, लेकिन कोच के रूप में मेरी ज़िम्मेदारी अब शुरू होती है'

'जब काम की बात हो, तो मैंने कभी लड़कियों/लड़कों के फुटबॉल को अलग-अलग नज़र से नहीं देखा है'

'मैं फुटबॉल में करियर बनाने के लिये 17 साल की उम्र में घर से भाग गयी थी'

उनकी उम्र सिर्फ 30 साल है, और वह अभी से ही एशियन फुटबॉल कन्फेडरेशन के ग्रासरूट डेवलपमेंट पैनल में शामिल हैं।

पिछले साल, अंजू तुरंबेकर कोचिंग में AFC का 'A' लाइसेंस पाने वाली सबसे युवा भारतीय महिला बनीं, और अब उन्हें ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के ग्रासरूट डेवलपमेंट कार्यक्रम का प्रमुख बना दिया गया है।

स्पष्ट रूप से, इस 'ख़ूबसूरत खेल' के प्रति उनकी लगन और दृढ़ता रंग लायी है।

तुरंबेकर की कहानी सही मायनों में प्रेरणादायक है।

"मैंने अपने फुटबॉल के सफ़र और अपनी शुरुआती खेती की ज़िंदग़ी से जो सबक सीखे हैं, उन्हीं के कारण आज मैं यहाँ तक पहुंच पाई हूं," तुरंबेकर ने रिडिफ़.कॉम की लक्ष्मी नेगी के साथ हुई बातचीत में बताया।

Anju Turambekar's first foreign trip, to the Netherlands in 2010 for the KNVB international coaching course, helped her a lot.

फोटो: KNVB इंटरनेशनल कोचिंग कोर्स के लिये 2010 में अंजू तुरंबेकर की नेदरलैंड्स की पहली विदेश यात्रा में उन्होंने काफी कुछ सीखा। फोटोग्राफ: अंजू तुरंबेकर/फेसबुक के सौजन्य से।

आप AFC 'A' लाइसेंस प्राप्त करने वाली सबसे युवा महिला हैं। आपने इस मुकाम को कैसे हासिल किया?

ए-लाइसेंस डिग्री हासिल करने में सालों की तैयारी, लगन, कड़ी मेहनत और प्रतिबद्धता लगी है। मुझे लगता है कि यह एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है और यह मुझे नयी चुनौतियों को स्वीकार करने के लिये प्रेरित करती है।

कोचिंग के क्षेत्र में फुटबॉल पर काम करने में मेरी दिलचस्पी तब जागी, जब खिलाड़ी के रूप में मेरा करियर ख़त्म होने के करीब आ गया था। KNVB इंटरनेशनल कोचिंग कोर्स के लिये 2010 में मेरी नेदरलैंड्स की पहली विदेश यात्रा ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाने में काफ़ी मदद की।

'मैंने 2012 में मुंबई में मेरा पहला 'डी' लाइसेंस कोर्स किया था। उसके बाद मैंने सीखने और ख़ुद को सुधारने पर काफ़ी ध्यान दिया। हर कोर्स के बाद मुझे महसूस हुआ कि मैं और भी ज़्यादा प्रोफेशनल होती जा रही हूं।

बेकानाल (कोल्हापुर जिला, महाराष्ट्र के गांधीग्लाज तालुका में) जैसे छोटे से गाँव की एक लड़की की फुटबॉल में दिलचस्पी कहाँ से जागी?

चलना सीखने से भी पहले मैं खेती सीखने लगी थी। गाँव की मेरी पूरी ज़िंदग़ी खेती में बीती है, जहाँ भैंसों का ख्याल रखना, घर के काम, पढ़ाई, एथलेटिक्स और फुटबॉल ही मेरी ज़िंदग़ी थे। मेरे लिये कोई शनिवार-रविवार या किसी तरह की छुट्टी नहीं होती थी। मैं और लोगों के खेत में जाकर काम करती थी; कई बार मैं दूसरे गाँव या शहर जाकर खेत की चीज़ें बेचती थी। मैं कभी दोस्तों के साथ खेल नहीं पाई, क्योंकि मेरे पास कभी समय ही नहीं था।

मेरे स्कूल के दिनों से ही खेल-कूद में मेरी पूरी दिलचस्पी थी। हम लंगड़ी, खो-खो, कबड्डी  खेला करते थे।

खेत में काम करने के कारण मैं हमेशा शारीरिक रूप से तंदुरुस्त थी।

प्राइमरी सेक्शन के बाद हमें एक एथलेटिक्स सम्मेलन के लिये नज़दीकी स्टेडियम में ले जाया गया था। मैं सभी खेलों में अच्छी साबित हुई। खेल-कूद के साथ मेरा नाता जुड़ा रहा, लेकिन 9वीं कक्षा में पहुंचने पर यह चरम-सीमा पर पहुंच गया।

एक सूचना में लड़कियों को फुटबॉल खेलने का आमंत्रण दिया गया। मैंने अपनी कुछ सहेलियों को मनाया और हम कॉलेज के बड़े मैदान पर गये। उस मैदान में खड़े होना ही हमारे लिये बड़ी बात थी। कुछ ही देर में कोच हमें सिखाने लगे। ज़्यादातर लड़कियों की दिलचस्पी ख़त्म हो गयी, लेकिन मेरी रुचि और बढ़ गयी। मुझे फुटबॉल के बारे में और जानना था। मुझे सारे पैंतरे सीखने थे।

मैं एक छोटे से गाँव में रहती थी, जहाँ बसें नहीं चला करती थीं। फुटबॉल प्रैक्टिस के बाद, मैं अंधेरे में चल कर अपने घर लौटती थी, लेकिन उससे मेरा हौसला कम नहीं हुआ।

मेरे माता-पिता भी इसके ख़िलाफ़ थे। लड़कों के साथ फुटबॉल खेलने पर मेरे पिता ने मेरी पिटाई कर दी थी, लेकिन मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। आप मानेंगे नहीं, मैं ट्रैक पैंट्स में फुटबॉल खेला करती थी। मैं गाँव की लड़की थी, मुझे पता था कि मैं क्या पहन रही हूं। लेकिन फिर मुझे लगा कि यह प्रैक्टिकल नहीं है, तो मैं कॉलेज में कपड़े बदल कर घर जाने लगी।

जल्द ही कोल्हापुर जिले के अंडर-19 ट्रायल्स हुए और मुझे मुंबई भेजा गया।

माता-पिता के राज़ी होने का सवाल ही नहीं उठता था, तो मैंने न उनसे इजाज़त मांगी और न ही पैसे।

असोसिएशन ने मुझे बस का टिकट और कुछ भत्ता दिया था। वहाँ से मैंने फिर पलट कर नहीं देखा। बाद में मुझे महाराष्ट्र की ओर से खेलने का मौका मिला।

Anju Turambekar

आपके माता-पिता को मनाना कितना मुश्किल था?

अंडर-19 सेलेक्शन ट्रायल्स के बाद मुझे आसाम में अंडर-19 नेशनल्स में महाराष्ट्र की ओर से खेलने के लिये चुन लिया गया। यह ख़बर कोल्हापुर के स्थानीय दैनिक अखबारों में छपी और लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गयी।

लेकिन फिर भी, मेरे माता-पिता फुटबॉल को करियर का विकल्प मानने के लिये तैयार नहीं थे। कई नेशनल्स खेलने और बाद में महाराष्ट्र टीम का नेतृत्व करने (मैं कोल्हापुर से पहली कप्तान थी) के बाद भी, मेरे माता-पिता मुझे फुटबॉल छोड़ कर पुलिस फोर्स में काम करके नौकरी पक्की करने के लिये कहते थे। मैंने आधे मन से अर्ज़ी तो दे दी, लेकिन कभी परीक्षा नहीं दी।

मैं नौकरी के चक्कर में नहीं फँसना चाहती थी। मुझे फुटबॉल खेलना था।

आखिरकार, 17 साल की उम्र में फुटबॉल को करियर बनाने के लिये मैंने घर छोड़ दिया।

आप आये दिन अखबार में 'लड़की शादी करने के लिये भाग गयी' की ख़बर पढ़ते रहते हैं, लेकिन मैं भागी थी फुटबॉल खेलने के लिये।

शुरुआत में यह बात मेरे माता-पिता को हज़म नहीं हुई, लेकिन बाद में जब मैंने काम करना शुरू किया और उनकी सहायता करने लगी, तो वे संतुष्ट हो गये। उनका भरोसा और विश्वास जीतने में कई साल लगे।

फुटबॉल को मुख्यतः मर्दों का खेल माना जाता है, आपने इसमें कदम  कैसे जमाये?

यह सचमुच एक विवाद का मुद्दा था और मेरे परिवार तथा गाँव के बड़े-बुज़ुर्गों के बीच मैं विवाद का विषय बन गयी थी। लड़कियों का शॉर्ट्स पहनना, देर से घर आना और मर्दों वाले खेल खेलना लोगों के गले नहीं उतर रहा था और मैं हमेशा मुश्किल में रहती थी।

मेरे परिवार को इस तरह का व्यवहार बिल्कुल पसंद नहीं था।

मेरे गाँव और पास के शहर के कुछ लोगों ने मेरे पिता के कान भरे। मैंने मोटरबाइक चलाना भी सीख लिया था; इस बात से और खलबली मच गयी, क्योंकि गाड़ियाँ चलाना सिर्फ मर्दों का काम था।

अंत में मेरे पिता ने सामने आकर मुझे फुटबॉल खेलना और स्कूल जाना बंद करने के लिये कहा और मज़ेदार बात यह है कि उन्होंने 10वीं की परीक्षा पास करने के बाद मुझे शादी करने का सुझाव भी दिया।

आपने अपने सपने को पूरा करने के लिये कई कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना किया है। क्या आपको कभी ऐसा ऐसा लगा कि आपको हार मान लेनी चाहिये?

जब मेरे पिता मेरे ऊपर महाराष्ट्र पुलिस में भर्ती के लिये दबाव बनाने लगे, तो मेरे पास घर छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मैंने बस बैग भरा और निकल गयी।

अहमदाबाद में नेशनल चैम्पियनशिप चल रही थी। महाराष्ट्र टीम मुझे लेना चाहती थी, लेकिन मैं उनके साथ खेल नहीं पाई। मैंने एक बुज़ुर्ग फुटबॉल के शौकीन से 1000 रुपये उधार लिये और मुंबई की बस पकड़ी और फिर वहाँ से अहमदाबाद रवाना हुई।

मैं आखिरी दो मैचेज़ में टीम में शामिल हो गयी और हम दूसरे स्थान तक पहुंचे।

कोच मेरे परफॉर्मेंस से प्रभावित हुए और उन्होंने मुझे पुणे में उनकी टीम में शामिल होने के लिये कहा। मेरे पास दूसरा कोई रास्ता था भी नहीं, मैं तुरंत हाँ कर दी। उन्होंने मेरे रहने और पढ़ाई की ज़िम्मेदारी उठाने का वादा किया।

पैसों की कमी पूरी करने के लिये मैं उस घर पर बर्तन मांजती थी, जहाँ मैं पेइंग गेस्ट के रूप में रहती थी।

मैंने अपने माता-पिता से कोई संपर्क नहीं किया और उन्होंने भी अपनी ओर से कोई कोशिश नहीं की।

फुटबॉल के मैदान पर कुछ कर दिखाने का मेरा हौसला और बढ़ गया।

उस समय मेरा खेल अपने शिखर पर था। राष्ट्रीय टीम तक पहुंचने के लिये मैंने पूरे साल कड़ी मेहनत की थी। उन दिनों दो बार मुझे इंडिया कैम्प्स के लिये चुना गया, लेकिन दुर्भाग्य से दोनों कैम्प्स हुए ही नहीं।

मैं डेढ़ साल पुणे में रही। पुणे जैसे शहर में और फिर मुंबई में रहना मेरे लिये मुश्किल था।

कई बार मैं सोचती थी कि मैं आज क्या खाऊंगी, क्योंकि मेरे पास पैसे नहीं होते थे।

इसके बाद मैं मुंबई में सीनियर नेशनल्स के ट्रायल के लिये मुंबई गयी और महाराष्ट्र टीम के कोच ने मुझे एक NGO (मैजिक बस) में कोचिंग की नौकरी करने का प्रस्ताव दिया। मैं बहुत ख़ुश हुई और नेशनल्स से लौटते ही मैंने मैजिक बस के लिये हाँ कर दी।

मुंबई आने पर मुझे पता चला कि अंग्रेज़ी तो दूर की बात है, मुझे अपनी हिंदी पर भी मेहनत करने की ज़रूरत थी।

NGO के मालिक अंग्रेज़ी बोलते थे और मेरी समझ में कुछ नहीं आता था।

मैं डॉकयार्ड रोड पर एक हॉस्टेल में किराये पर रहती थी; मेरा वेतन उस समय 5000 रुपये था। उतने ही पैसों से मैं अपनी पढ़ाई और किराये का खर्च निकालती थी। 2008 के बाद मैंने फुटबॉल नहीं खेला। मेरी पदोन्नति हो गयी और मुझे बहुत ज़्यादा यात्रा करने की ज़रूरत पड़ने लगी। मेरा कॉलेज पुणे में था और मैं मुंबई में रह रही थी। काम और पढ़ाई के बीच संतुलन बनाना बेहद मुश्किल था।

सच कहूं, तो मैं बेहद आशावादी इंसान हूं और मैंने ज़िंदग़ी में कभी हार नहीं मानी है।

मैंने अपने फुटबॉल के सफ़र और अपनी शुरुआती खेती की ज़िंदग़ी से जो सबक सीखे हैं, उन्हीं के कारण आज मैं यहाँ तक पहुंच पाई हूं।

अपने मूल्यों और दैनिक जीवन के बीच बनाया गया ताल-मेल मुझे हमेशा एक बेहतर कल की ओर बढ़ने के लिये प्रेरित करता आया है।

आज भी, मैं अपने दिन का मूल्यांकन करती हूं और कोशिश करती हूं कि मैं हर मिनट का सही इस्तेमाल कर सकूं।

Anju Turambekar

आपने खेलने के बाद कोचिंग को क्यों चुना? यह फैसला आपने कैसे लिया?

मैजिक बस में शुरुआत करने के बाद मुझे फुटबॉल के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला। मैजिक बस ने मुझे सिखाया कि संपूर्ण विकास कैसे खिलाड़ियों, कोचेज़, माता-पिता को बदलने में अहम भूमिका निभाता है।

इस दौरान मुझे एहसास हुआ कि बेहतर नौकरी के लिये अपनी पढ़ाई जारी रखना ज़रूरी है।

मुझे यह भी लगा कि खेलने के मौके अब ज़्यादा नहीं हैं, क्योंकि इंडिया कैम्प दो बार रद्द हो गया। काम मेरी प्राथमिकता थी और काम बढ़ता जा रहा था। मैंने जीने के लिये पैसे कमाना चाहती थी, और धीरे-धीरे मैंने नेशनल्स खेलना छोड़ दिया, लेकिन जहाँ तक संभव था मैंने स्थानीय टूर्नामेंट्स में खेलना जारी रखा।

लड़कियों की टीम के मुकाबले लड़कों की टीम को कोच करना कितना मुश्किल होता है?

सच कहूं तो, जब काम की बात हो, तो मैंने कभी लड़कियों/लड़कों के फुटबॉल को अलग-अलग नज़र से नहीं देखा है।

मैंने ग्रासरूट डेवलपमेंट के लिये कोच/इंस्ट्रक्टर का काफ़ी प्रशिक्षण किया है और ज़्यादातर मैं पुरुष कोचेज़ को सिखाती हूं। मैंने पहले मुंबई में लड़कों की टीम के साथ काम किया है। दुनिया भर में पुरुष कोचेज़ को फुटबॉल खेलने, कोचिंग, खिलाड़ी और कोच के रूप में प्रतियोगिताओं में ज़्यादा मौके मिलते हैं।

इसलिये, हाँ अनुभव मायने रखता है, लेकिन अगर आपमें आत्मविश्वास है, कुछ सीखने की चाह है, तो कुछ भी असंभव नहीं है। मर्दों के साथ काम करते समय मैं कभी नहीं सोचती कि मैं एक लड़की हूं। अच्छा प्रदर्शन करना और बेहतर प्रोफेशनल बनना ही मेरा लक्ष्य है।

Anju Turambekar

भारत में ग्रासरूट फुटबॉल की क्या स्थिति है? आपके क्या लक्ष्य हैं?

ग्रासरूट डेवलपमेंट में AIFF का इतिहास ज़्यादा लंबा नहीं है। FIFA/AFC ग्रासरूट्स सिद्धांत को अपनाये हमें पाँच साल हुए हैं। पूरे देश को शिक्षा की और उसका महत्व समझने की ज़रूरत है। इसलिये ग्रासरूट्स हमेशा से ही AIFF की प्राथमिकता रही है। हमने ग्रासरूट्स डेवलपमेंट के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिये देश भर में प्रचार किया है।

कुछ ही वर्षों में देश में जमीनी स्तर पर विकास के लिए हितधारकों के प्रयासों, गंभीरता और सम्मान को देखकर मैं बहुत खुश हूं। एक समय था जब हमें इस विषय के लिए मनाया जाता था, लेकिन आज स्थिति बिल्कुल अलग है। हमने ग्रासरूट्स के लिये कई कोचेज़ को प्रशिक्षित किया है, और यह मायने रखता है।

अपने लिये निजी और प्रोफेशनल तौर पर आपका सपना क्या है?

मैं बस किसी भी तरह अपने देश की सेवा करना चाहती हूं। मैं एक बार में एक कदम बढ़ा रही हूं। मैंने अपना फुटबॉल खेलने का सपना पूरा किया है, लेकिन एक कोच के रूप में मेरा सफ़र अब शुरू होता है।

 

लक्ष्मी नेगी