कामाक्षी पाती, नब्बे से अधिक उम्र की एक ज़िंदादिल महिला ने चेन्नई नगर निगम को नाकों चने चबवा दिये हैं।
फोटो: कामाक्षी पाती। फोटोग्राफ: ए गणेश नाडार /रिडिफ़.कॉम
प्यार से लोग उन्हें कामाक्षी पाती (दादी के लिये तमिल शब्द) बुलाते हैं, और वह चेन्नई की एक नगर विकास ऐक्टिविस्ट हैं।
और जो बात उन्हें औरों से अलग बनाती है, वह है उनकी 92 वर्ष की उम्र। जहाँ उनकी उम्र के लोग अपने जीवन के ढलते वर्ष अपने घर पर बिताना पसंद करते हैं, वहीं पाती ने अकेले चेन्नई महानगरपालिका निगम से अपनी गली को साफ़ करने और वहाँ पेड़ लगाने का काम करवा लिया -- यह कोई आसान काम नहीं था; इसके लिये उन्हें छः वर्ष इंतज़ार करना पड़ा।
अपने NGO स्पार्क, जिसमें वह सह-संस्थापिका हैं, के साथ कामाक्षी पाती ने एलियट्’स बीच पर एक जाने-माने स्मारक की मरम्मत के लिये महापौर को 34 लाख रुपयों की रकम जारी करने के लिये राज़ी किया।
आज भी यह ज़िंदादिल महिला दक्षिण चेन्नई के लोकप्रिय समुद्री किनारों की सफ़ाई के तरीके सोच रही है।
आइये उनकी कहानी उनके ही शब्दों में सुनें।
जुलाई में मैं 92 वर्ष की हो गयी। मैं सुबह 5 से 6 के बीच उठती हूं। कुछ देर ध्यान लगाती हूं और कुछ व्यायाम करती हूं। मेरे घुटनों में थोड़ी तकलीफ़ होने के कारण मैं पैदल नहीं चल पाती।
1943 में मेरे पति सरकारी नौकरी पर लगे। मेरी शादी 1946 में हुई और मैं कलकत्ता चली गयी। भारत के आज़ाद होने पर मैं कलकत्ता में महात्मा गांधी गांधी की प्रार्थना सभा में शामिल हुई।
1948 में मेरे पति का तबादला राष्ट्रपति सचिवालय में हो गया। हम वहाँ 1948 से 1978 तक रहे, यानि कि लॉर्ड माउंटबैटन से नीलम संजीवा रेड्डी के दौर तक।
1948 तक बँटवारे के दंगे शांत हो चुके थे, लेकिन हवा में नफ़रत फिर भी फैली हुई थी। हर घर ने दो शरणार्थी परिवारों को आसरा दिया हुआ था।
हमें ट्रेन से मद्रास आने में दो दिन लगते थे। सुबह-सुबह एडवांस टिकट बुक करने के लिये हमें रात भर कतार में खड़े रहना पड़ता था। रास्ते में टिकट कलेक्टर लोगों से पैसे लेकर उन्हें आरक्षित सीटों पर बैठा देते थे।
मैं इसका ज़ोरदार विरोध करती थी और जब वे मेरी बात मानने से इनकार कर देते थे, तब मैं चेन खींच कर ट्रेन रोक देती थी, जब तक कि सभी अनारक्षित लोगों को नीचे न उतार दिया जाये।
डिब्बा साफ़ न होने पर मैं बड़े स्टेशनों पर उतर कर उसे साफ़ करवाती थी।
1978 में मैं मद्रास रहने आ गयी।
मेरी एक बेटी और दो बेटे हैं। मेरे छः नाती-पोते भी हैं और चार परनाती-परपोते भी।
जिस गली में मैं रहती हूं, उसके अगले छोर पर राजाजी भवन (बेसंट नगर, जिसमें केंद्र सरकार के कार्यालय हैं) है। उस समय उस जगह पर बेसंट नगर का सबसे बड़ा खुला मैदान हुआ करता था। हमें वहाँ एक पार्क चाहिये था।
हमने इसी उद्देश्य से बेसंट नगर फोरम बनाया। हमने इस बारे में सरकार को लिखा लेकिन उन्होंने मना कर दिया। हम अदालत गये और हार गये। हमारे विरोध से बस इतना असर हुआ कि वहाँ पर पाँच-मंज़िला इमारत की जगह सिर्फ तीन मंज़िलें बनीं।
मेरे घर के सामने की यह सड़क 80 फीट की है। उस समय यह कच्ची सड़क हुआ करती थी। आधी सड़क पर जंगली झाड़ियाँ उगी हुई थीं। झाड़ियाँ इतनी घनी थीं, कि उसके भीतर आपकी कार चली जाये और बाहर से दिखाई न दे।
मैंने नगरपालिका अधिकारियों को वहाँ पेड़ लगाने के लिये कहा। उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि पेड़ सिर्फ मुख्य सड़कों पर लगाये जाते हैं, गलियों में नहीं। मैंने उनसे कहा कि इसे 'एवन्यू' नाम दिया गया है और उन्हें अपनी डिक्शनरी में देखना चाहिये कि उसका मतलब क्या होता है।
एवन्यू का मतलब है एक गली, जिसमें पेड़ों की पंक्ति लगाई गयी हो। वे तैयार हो गये उन्होंने बिना झाड़ियाँ हटाये कुछ पौधे लगा दिये। मैं दंग रह गयी लेकिन मैं कुछ कर नहीं सकती थी।
अगली बार जब मुझे पौधे उतारता हुआ एक ट्रक दिखाई दिया, तो मैंने नगरपालिका के आयुक्त को कॉल करके उनसे कहा कि, 'अगर आप यह काम सिर्फ आँकड़े दिखाने के लिये करते हैं, तो आप उन्हें अपने परिसर में ही क्यों नहीं लगा लेते?'
वह अच्छे आदमी हैं, कमिश्नर राजेश लखोनी। उन्होंने मुझसे मेरी समस्या पूछी। मैंने उन्हें जंगली झाड़ियों के बारे में बताया। न सिर्फ उन्होंने झाड़ियाँ साफ़ कर दीं, बल्कि साथ ही पेड़ लगाने के बाद उन्होंने पौधों की सुरक्षा के लिये तार की जाली भी लगाई।
मुझे इसके लिये नगरपालिका से छः साल तक लड़ाई लड़नी पड़ी। आज भी मैं उन्हें अच्छी और साफ़ स्थिति में रख रही हूं।
उसके बाद मेरे एक दोस्त डॉ. टी डी बाबू, जो मरीन बायोलॉजिस्ट हैं और पर्यावरण को लेकर बेहद सजग हैं, के साथ मिलकर मैंने स्पार्क की स्थापना की। यह चेन्नई के नागरिकों के लिये अपनी शिकायतें बताने का एक मंच है जहाँ सरकार से उनका समाधान कराना सुनिश्चित किया जायेगा।
हमने पहले इसे बेसंट नगर के लिये शुरू किया था, लेकिन हमारे पास पूरे चेन्नई से शिकायतें आने लगीं। हमने उन्हें सलाह दी कि उन्हें क्या करना चाहिये।
फोटो: कामाक्षी पाती, दायें से दूसरी, एलियट्’स बीच, चेन्नई के कार्ल श्मिट मेमोरियल पर स्वयंसेवियों के साथ।
स्पार्क का पहला लक्ष्य था बेसंट नगर बीच पर कार्ल श्मिट मेमोरियल को दुरुस्त करना।
यह स्मारक 1930 में कार्ल जे श्मिट की याद में बनाया गया था, एक डेनिश नागरिक जिन्होंने समुद्र में डूबती तीन अंग्रेज़ लड़कियों की जान बचाने की कोशिश में अपनी जान गँवा दी थी।
इसपर किसी का ध्यान नहीं था। वहाँ दो बोर्ड लगे थे। एक पर लिखा था 'PWD द्वारा रखरखाव' और दूसरे पर लिखा था कि यह संपत्ति चेन्नई नगरपालिका की है। जब हम उनके पास गये, तो उन्होंने कहा कि वह ASI का है। जब हमने इस बात का लिखित प्रमाण मांगा तो उन्होंने अपनी बात वापस ले ली।
2012 वर्ष में दिसंबर 30 को हमने वहाँ मोमबत्तियाँ जलाने का फ़ैसला किया। उसी रात निर्भया के समर्थक भी बीच पर मोमबत्ती जला कर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।
हमारे उद्देश्य का थोड़ा प्रचार हुआ। अद्यार टाइम्स के विंसेंट डी’सूज़ा ने हमारी काफ़ी मदद की। वह हमें बताते रहते थे कि हमें किस समस्या के लिये किससे मिलना चाहिये।
हम IIT-मद्रास के संपर्क में आये, और उन्होंने हमारी मदद की। उन्होंने हमारे मार्गदर्शन के लिये अपने सिविल इंजीनियरिंग विभाग के कुछ लोग भेजे। उन्होंने हमें बताया कि क्या करने की ज़रूरत है और उसमें कितना खर्च हो सकता है।
हम नगरपालिका के अधिकारियों से मिले, और उन्होंने भी हमारी काफ़ी सहायता की, क्योंकि अब वे हमें अच्छी तरह जानने लगे थे। मेयर दुराइसामी ने इस काम के लिये 34 लाख रुपये की राशि जारी की और यह काम बहुत अच्छी तरह से हुआ। मरम्मत के बाद इसके दुबारा खुलने पर डेनमार्क के राजदूत भी समारोह में शामिल हुए।
अब इसकी हालत फिर से ख़स्ता हो चली है। हर साल दिसंबर 30 को हम वहाँ मोमबत्तियाँ जलाते हैं। मछुआरे भी हमारे साथ शामिल हो जाते हैं और समुद्र का शिकार हुए अपने लोगों के लिये मोमबत्तियाँ जलाते हैं।
कई वर्षों के बाद नगरपालिका और पुलिस अधिकारी हमारी सुनने लगे हैं, हमारी बातों में वज़न होता है, क्योंकि हम सिर्फ सार्वजनिक मुद्दों के साथ उनके पास जाते हैं।
कई बार मैंने अपनी गली में मूवी की शूटिंग रुकवाई है। सैंकड़ों लोग शूटिंग देखने के लिये इकठ्ठे हो जाते हैं और जगह को गंदा करते हैं। यह एक आवासीय क्षेत्र है और हमें शांति से रहने का अधिकार है।
मैंने रात को यहाँ होने वाली निर्माणकार्य की सभी गतिविधियाँ बंद करवा दी हैं। रात को शांति पाना हमारे अधिकारों में शामिल है।
मैं 10.30 के बाद पटाखे फोड़ने की अनुमति नहीं देती। कुछ लोग काली खिड़कियों वाली कारों में आकर मेरी गली में शराब पीने और ड्रग्स लेने जैसे कामों के लिये रुकते हैं। मैं इसकी अनुमति नहीं देती। मैं तुरंत पुलिस को बुला कर उन्हें बाहर निकलवाती हूं।
हमारे कानून बहुत ही अच्छे हैं, लेकिन उन्हें सही तरीके से लागू नहीं किया गया है। जनता शक्तिशाली तो है, लेकिन उसे अपनी शक्ति का अंदाज़ा नहीं है। हमें उन्हें यह बात सिखानी होगी।
युवाओं को सामाजिक कार्य करने के लिये आगे आना होगा। मुझे आज के युवा स्वार्थी लगते हैं। वे सामाजिक कामों से जी चुराते हैं, जैसे यह कोई 24-घंटों का काम हो।
मैं आपको बताना चाहूंगी कि यह कोई 24-घंटों का काम नहीं है। आपको रोज़ बस एक घंटे का समय सामाजिक कार्यों के लिये देना होगा। आपके इलाके को साफ़ रखने के लिये इतना समय काफ़ी है।
आपमें अधिकार की भावना होनी चाहिये। आपको सोचना चाहिये कि यह मेरी सड़क है, यह मेरा पार्क है। जब ग्रामीण लोग अपने गाँव को अपना मान कर उसकी सुरक्षा के लिये तैयार रहते हैं, तो हम शहरी लोग उनसे क्यों नहीं सीख सकते?
अगर कोई आपकी सड़क को खोद रहा हो, तो उनसे पूछें कि क्या उनके पास इसकी अनुमति है। उनसे अनुमति दिखाने के लिये कहें या नगरपालिका को कॉल करें।
लोगों को अपने अधिकार पता होने चाहिये और उन्हें रिश्वत के लिये हमेशा मना करना चाहिये। मुझे पहले धमकियाँ मिल चुकी हैं, लेकिन उन्हें पता था की ये पाती हार मानने वाली नहीं है, तो फिर लोग मेरी सुनने लगे।
मैं चाहती हूं कि आज के युवा सामाजिक मुद्दों को गले लगायें, और जब मैं ऐसा होता हुआ देखूंगी तभी मैं अपने जीवन को सफल मानूंगी।
उन्होंने ए गणेश नाडार/रिडिफ़.कॉम को बतलाया।