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Rediff.com  » Movies » सुपर 30 रीव्यू

सुपर 30 रीव्यू

By सुकन्या वर्मा
July 15, 2019 07:57 IST
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'सुपर 30 बस इतना कहना चाहती है कि ऋतिक रोशन बिना अपनी डील-डौल दिखाये भी ऐक्शन हीरो हो सकते हैं,' सुकन्या वर्मा का कहना है।

Super 30 really wants to say is Hrithik Roshan can

शुरुआती क्रेडिट्स में बड़े अक्षरों में 'विकास बहल द्वारा निर्देशित' की घोषणा दिखाई देती है, और फिर काला धुआँ आकर उनके नाम को ढँक देता है।

यह चीज़ विकास बहल पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों से उनकी छवि पर लगी ठेस की याद दिलाती है।

उनकी चौथी फिल्म सुपर 30 (चिल्लर पार्टी, क्वीन, शानदार) अपनी परिस्थितियों से लड़ते एक आदमी के बारे में है, जो आखिरकार जीत हासिल कर ही लेता है।

अच्छी बात यह है कि फिल्म बहल के बारे में नहीं, बल्कि बिहार के दूरदर्शी गणित के शिक्षक और सुपर 30 के संस्थापक, आनंद कुमार के बारे में है, जिनके मार्गदर्शन में कई ग़रीब, लेकिन प्रतिभाशाली विद्यार्थियों ने सफलता हासिल की है।

निश्चित रूप से इस कहानी को काल्पनिक रूप दिया गया है और बरसात-आंधी, एनिमेशन की सुविधा वाले क्लासरूम्स, दिमाग़ में बातों को ठूंसने वाले बैकग्राउंड स्कोर और इंग्लिश विंग्लिश  में चीज़ी लेसन्स के साथ आनंद कुमार की जीत को वास्तविक की जगह फिल्मी दिखाने की पूरी कोशिश की गयी है।

झूठ दिखाने वाला सिनेमा महत्वपूर्ण कहानियाँ सुनाकर अच्छा दिखने की कोशिश करता है।

हमारे बायोपिक्स कभी भी सच्चाई नहीं दिखाते। या तो उनमें 'सिर्फ अच्छी चीज़ों' को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है या फिर अभिनेता के काम को ज़्यादा सजा-धजा कर, 'मुझे-कितना-भी-गिराओ-मैं-फिर-उठूंगा' की घिसी-पिटी तर्ज पर परोसा जाता है, जो सबको पहले से पता होता है।

लेकिन सबको पहले से यह बात पता नहीं है कि इसमें एक लड़की आकर पुरानी बातों को बताते हुए मुख्य किरदार पर छेड़खानी का आरोप लगाती है, जो मुख्य किरदार की नहीं, बल्कि बहल की कहानी है।

लेकिन वस्तुनिष्ठता के चश्मे से भी, सुपर 30 ओहदे, जाति और आर्थिक स्थिति की गंदी राजनीति ढँके सिस्टम के ख़िलाफ़ एक आदमी की सफलता के बनावटी प्रदर्शन को छुपा नहीं सकता।

और इस गड़बड़ी का आरोप कुछ हद तक इसके मुख्य किरदार पर भी डाला जा सकता है -- ग़लत रोल में चुने गये ऋतिक रोशन।

वो किरदार जैसे दिखते नहीं हैं।

वो किरदार जैसा बोलते नहीं हैं।

बहुत ही अच्छे अभिनेता होने के बावजूद ऋतिक रोशन की कुदरती गंभीरता और अभिनय की समझ को आदर्शवादी रूपरेखा, बहुत ज़्यादा धूप से झुलसी त्वचा या बोलने के लहज़े के आगे घुटने टेकते देखना अजीब लगता है।

हर सीन में रोशन की भूरी त्वचा का रंग बदलता रहता है और उनकी बिहारी बोलने की नाकाम कोशिश ऐसी लगती है जैसे अमिताभ बच्चन का कोई फैन लाल बादशाह  की नकल कर रहा हो।

अ ब्यूटिफुल माइंड  के जॉन नैश की तरह ब्लैकबोर्ड पर समीकरण लिखना, कोई... मिल गया  के रोहित की तरह मासूमियत दिखाना या फिर भोले होटेलियर के साथ मैथेमैटिकल 'मांडवली' करके भूखे विद्यार्थियों के लिये समोसे मंगवाना, कोई भी बात दर्शकों को ऋतिक के किरदार को गंभीरता से लेने जितना प्रभावित नहीं कर पाती।

साथ ही सीखने वाले बच्चों के ऊपर बनाई गयी एक मूवी -- जिसकी कहानी भी एक पूर्व-विद्यार्थी (एक प्रेरक किरदार में विजय वर्मा) सुना रहा है -- सुपर 30 ने उन्हीं बच्चों को कहानी में दरकिनार कर रखा है, और यह बात उतनी ज़्यादा ही खटकती है जितनी इस फिल्म में दिखाई गयी सामाजिक राजनीति।

क्या इन बच्चों को उतनी ही करीबी से जानना अच्छा नहीं लगता, जितनी करीबी से हम उन्हें प्रेरित करने वाले शिक्षक को जानते हैं? सुपर 30 में ये दोनों ही बातें नहीं हैं।

और जान-बूझ कर हास्यास्पद दिखाये गये 'पढ़ाई की लड़ाई' के लक्ष्य हासिल होने की कग़ार पर, अंत में विद्यार्थियों के बैच के सफलता के करीब आने के पलों को इतने अजीब, बनावटी अंदाज़ में दिखाया गया है, कि फिर लगा चलो अच्छा ही हुआ विद्यार्थियों को पूरी फिल्म में अनदेखा किया गया है।

सुपर 30 में आनंद कुमार की उपलब्धियों की खुशियाँ मनाने के दृश्य भी उतने ही खोखले हैं।

दर्शकों को पैसों की कमी के कारण अपने बेटे को कैम्ब्रिज न भेज पाने के कारण निराश पिता (दयालु विरेन्द्र सक्सेना) का दुःख आनंद को पापड़ बेचने पर मजबूर होते देखने के दुःख से कहीं ज़्यादा चुभता है। उनके परिवार के बाक़ी लोगों को देख कर लगता है कम से कम वो लोग नहाते तो हैं।

सुपर 30 के शुरुआती दृश्य तेज़ी से आते-जाते रहते हैं, जब तक कि राजनीति से जुड़े एक व्यापारी (आदित्य श्रीवास्तव) आनंद के सामने एक ऐसा प्रस्ताव नहीं रखते, जिसे आनंद ठुकरा नहीं सकते।

और अचानक फिल्म सोने की चेन, डांस बार्स और कोचिंग माफ़िया के बीच गैंग्स्टर्स की कहानी का रूप ले लेती है।

और इसके एक बेहद बेअसर दृश्य में आनंद की अंतरात्मा जाग उठती है और वो सुपर 30 प्रोग्राम, यानि कि विद्यार्थियों को IIT-JEE के लिये तैयार कराने वाला एक निःशुल्क कोचिंग सेंटर खोलने का फैसला करते हैं।

आनंद उन सभी विद्यार्थियों की एक परीक्षा लेते हैं और उनमें से 30 को चुनते हैं, जिससे पता चलता है कि उनकी प्राथमिकता ग़रीबी नहीं, प्रतिभा है।

लेकिन सुपर 30 में हर जातिवादी किरदार के गले में लटकता रुद्राक्ष, आनंद के कैम्ब्रिज ऐड्मिशन का आग की लपटों में जलाया जाना, आनंद की क्लास में आने के लिये एक विद्यार्थी का तूफ़ानी मौसम में नदी में बेड़ा चलाना, महाभारत के एकलव्य-द्रोणाचार्य अध्याय के ज़िक्र और बार-बार दुहराये गये अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा  वाक्य जैसी चीज़ें आनंद के साथ-साथ इस फिल्म के विश्वास को स्पष्ट रूप से नहीं दिखा पातीं।

सुपर 30 बस इतना कहना चाहती है कि ऋतिक रोशन बिना अपनी डील-डौल दिखाये भी ऐक्शन हीरो हो सकते हैं।

उन्होंने अपने किरदार में वही रूख़ापन दिखाया है, उसी आक्रामक अंदाज़ को फिर से पेश किया है, उसी फैन क्लब को निशाना बनाया है, धमकी के कॉल्स को 'जो करना है कर लो' के उसी जज़्बे के साथ काटा है और हिंदी फिल्म के आम हीरो की तरह गोली खा कर ज़िंदा भी बचे हैं।

दुष्ट, दबंग राजनेता के रूप में पंकज त्रिपाठी, मृणाल ठाकुर की चार सीन्स की प्रेम कहानी और अजीब कपड़े पहनने वाले पत्रकार के रूप में अमित साध को फिल्म की कहानी ने पूरी तरह बेमतलब बना दिया है।

सीधी और एकतरफ़ा सुपर 30 शिक्षक-से-महात्मा की अपनी कहानी से इतनी ज़्यादा संतुष्ट है, कि उसे हर मामूली चीज़ शानदार नज़र आ रही है।

Rediff Rating:

 

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सुकन्या वर्मा
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