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जजमेंटल है क्या रीव्यू

July 29, 2019 09:00 IST

जजमेंटल है क्या  एक तूफ़ानी सोच है लेकिन कैमरे के सामने के अदाकारों और कैमरे के पीछे के कलाकारों के शानदार काम ने इसे ख़ूबसूरत बनाया है, सुकन्या वर्मा का कहना है।

आप जजमेंटल है क्या  में कंगना रनौत के काम को अनदेखा नहीं कर सकते।

यह पैनी, अस्थिर, हलचल भरी थ्रिलर एक विवादग्रस्त सितारे की 'ख़ुद तो डूबेंगे सनम, लेकिन साथ सबको लेकर डूबेंगे' वाली सोच की एक दमदार झलक है, जो कुछ लोगों को रास आती है, तो कुछ को ग़ुस्सा दिलाती है।

लेखक कनिका ढिल्लन और उनके डायरेक्टर पति प्रकाश कोवेलामुडी ने कंगना की बदनाम छवि और हुनर दोनों का अपनी स्क्रिप्ट में इतनी ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है, कि आपको पता भी नहीं चलता कि कब कंगना किरदार निभा रही हैं और कब बॉबी बाटलीवाला ग्रेवाल आपके सामने है।

रियल और रील, वास्तविक और मनगढ़ंत, दृश्यरतिक और हिंसक के बीच के फ़ासले को कम करने वाली जजमेंटल है क्या  एक महिला की अबाध, अस्थिर, अविश्वसनीय सोच का परिचय है, जो पुरुष-प्रधान समाज के आगे घुटने टेकने से साफ़ मना कर देती है।

साथ ही यह फिल्म समाज के बनाये नियमों और कायदों पर चलने से इनकार करने वालों पर लांछन लगाने की समाज की रीति पर एक कड़ा प्रहार है।

भारी-भरकम डायलॉग्स में समय-समय पर 'बावली' और 'अतरंगी' कहकर बुलाई जाने वाली बॉबी को दुनिया की बातों की परवाह नहीं है और वह उनकी कीड़े-मकोड़ों की सी ज़िंदग़ी और पागलपन का हिस्सा बन कर नहीं रहना चाहती।

उसकी हाइना जैसी हँसी, बिखरे बाल और बोहेमियन कपड़ों से लेकर क्रॉक्रोच से उसके डर, जिस्मानी सुख में अस्पष्ट अरुचि, घिनौने मज़ाक, जासूसी करने की आदत, टंग ट्विस्टर्स से उसके प्यार और ख़राब समाचारों की क्लिपिंग्स से उसका ओरिगैमी बनाना और एक नालायक बॉयफ्रेंड (हुसैन दलाल) से उसकी उत्सुक बातचीत तथा जजमेंटल है क्या  की मूवी-के-भीतर-मूवी वाली कहानी में जिस किरदार के लिये वो डब कर रही है, उस किरदार की ज़िंदग़ी जीने की उसकी चाह बॉबी को एक सम्मोहक व्यक्तित्व बनाती है।

उसके व्यक्तित्व का कोलाहल उसके आस-पास के वातावरण को भी प्रभावित करता है, और उसकी हर बात को ख़ुद से जोड़ने की आदत को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

घर की दीवारों पर लगे क्वीन और रंगून के पोस्टर्स हों, तसवीरों को फोटोशॉप करने की उसकी आदत हो -- यहाँ साफ़ तौर पर मीडिया में फैली उसकी और ऋतिक रोशन की एक 'झूठी' तसवीर पर निशाना साधा गया है -- या हर बार धमकी देने पर ख़ुद को पीड़ित दिखाने का अंदाज़, जिसमें 'मैं तुम्हें एक्सपोज़ कर दूंगी' काफ़ी हद तक उसके तीखे इंटरव्यूज़ का हिस्सा लगता है।

इसमें मि. नटवरलाल  के तौबा तौबा गाने का भी इस्तेमाल किया गया है, जिसे संयोग से ऋतिक रोशन के चाचा राजेश रोशन ने कम्पोज़ किया है, और यह बात भी उसकी चर्चित कलह की ओर इशारा करती है।    

जजमेंटल है क्या आज के दौर की सिलसिला  होती अगर प्रोड्यूसर एकता कपूर राजकुमार राव का किरदार ऋतिक रोशन से करवा पातीं।

वो बात भले ही कितनी भी सनसनीखेज़ होती, लेकिन राव इस किरदार में बिल्कुल सही बैठते हैं। इस फिल्म में न तो रनौत और न ही राव अपने जाने-पहचाने किरदार निभा रहे हैं, लेकिन एक-दूसरे की एनर्जी को खींचने की उनकी काबिलियत जजमेंटल है क्या  को अंत तक रोमांचक और दिलचस्प बनाये रखती है।

स्टेज ऐक्टर की छोटी सी भूमिका भी निभाने वाली ढिल्लन जब अपने सारे पत्ते खोल दें, तो फिर शक की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती।

यह पूरी कशमकश सिर्फ दो ही दिशाओं में जा सकती है।

लेकिन ज़्यादा रहस्य न होने के कारण जजमेंटल है क्या  का कमज़ोर चूहे-बिल्ली का खेल सिर्फ 'नाम का थ्रिलर' रह जाता है।

लेकिन यह मूवी अपनी व्यस्त, बख़ूबी प्रदर्शित रचनात्मकता में इस कदर डूबी हुई है कि यह कमी विश्वास और सच के टेनिस के खेल के साथ-साथ कुछ हद तक रामायण  से प्रेरित प्रतीकात्मकता के पीछे छुप जाती है।

यह एक तूफ़ानी सोच है लेकिन कैमरे के सामने के अदाकारों और कैमरे के पीछे के कलाकारों के शानदार काम ने इसे ख़ूबसूरत बनाया है।

हुसैन दलाल के सेक्स के भूखे प्रेमी, सतीश कौशिक के सीरीयल स्नैकर पुलिस वाले, बृजेंद्र कला के हँसमुख असिस्टंट, जिमी शेरगिल के बेहद धैर्यवान थिएटर डायरेक्टर, अमृता पुरी और अमर्या दस्तूर के ख़ुद बनाये गये हुनर जैसे सभी किरदार और बातें, राव और रनौत के इस छुपे हुए रहस्यों के खेल को और भी मज़ेदार बनाती हैं।

रात और अंधेरे को सिनेमेटोग्राफर पंकज कुमार की तरह कोई शूट नहीं कर सकता, और यहाँ बॉबी के हुनर में अपने हुनर को दिखाने का उन्होंने पूरा मज़ा लिया है।

कहीं-कहीं पर अलेक्ज़ैंडर डेस्प्लैट की द शेप ऑफ़ वॉटर  की याद दिलाने वाला डेविड बी जॉर्ज का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म की रफ़्तार को बनाये रखने का काम बख़ूबी करता है।

कोवेलामुडी का अपना अनोखा विज़ुअल अंदाज़ है, जिसमें साउंड और दृश्य प्लॉट के मूड और डरावने मोड़ों के साथ कदम मिला कर चलते हैं। ज़्यादातर, तड़क-भड़क उनके कहानी कहने के अंदाज़ में चार चांद लगा देती है।

लेकिन कई बार एक अशांत सोच का इस प्रकार का ग्लैमरस प्रदर्शन उसके दर्द की जगह उसकी ख़ुशी बयाँ करने लग जाता है।

जजमेंटल है क्या  घरेलू हिंसा के असर और इसे अंजाम देने वालों के बारे में सख़्ती से बात करती है लेकिन यह समस्या पर सिर्फ सरसरी निग़ाह डालती है।

ख़ौफ़नाक दृश्यों और प्रतीकों का ताल-मेल ख़ूबसूरत है - जैसे मिरर मेज़ और आग की लपटों से 10-सिर वाले रावण को दिखाना।

शायद ये अतिशयोक्तियाँ ज़रूरी थीं।

शायद ये काल्पनिक थीं।

जजमेंटल है क्या  संदेह के लिये और पथभ्रमित लोगों के प्रति सहानुभूति के लिये काफ़ी जगह छोड़ती है।

रिडिफ़ रेटिंग:
सुकन्या वर्मा