'सेटर्स में अपने नालायक बच्चों के लिये मार्क्स खरीदने वाले माता-पिता की मायूस सोच को समझने की कोशिश तो कहीं नहीं की गयी है, लेकिन कम से कम इसमें सस्पेंस के साथ इसे दिलचस्प बनाने की कोशिश ज़रूर की जा सकती थी,' सुकन्या वर्मा का कहना है।
व्हाय चीट इंडिया की तर्ज पर उसके आस-पास ही पेश है शिक्षा माफ़िया पर आधारित एक और मूवी। और इमरान हाशमी की फिल्म की तरह ही इसमें भी दम नहीं है।
डायरेक्टर अश्विनी चौधरी की सेटर्स एक चोरी पर आधारित थ्रिलर के अंदाज़ में बनाई गयी है, जिसमें पेड प्रॉक्सीज़ और प्रश्न पत्र लीक करने का गोरखधंधा करने वाली वाराणसी की एक संस्था की झलक दिखाई गयी है, जिसका नेटवर्क पूरे भारत में फैला है, जिसे चलाने वाले सनकी गुस्सैल मालिक (पवन मल्होत्रा) के दाँयें हाथ के किरदार में श्रेयस तलपड़े काम पूरा करने के लिये मुंबई से दिल्ली तक का सफर करते हैं।
और उनके पीछे लगे हैं एक लोकल पुलिसवाले आदित्य सिंह (आफ़ताब शिवदसानी), जिन्हें उनके अधिकारियों से इस रैकेट को खत्म करने का इशारा मिल चुका है।
हमें बताया गया है कि अपूर्व और आदित्य पुराने दोस्त हैं, जिन्होंने अपनी आइएएस की परीक्षा साथ दी थी, और बाद में एक ही लड़की के प्यार में पड़ कर एक-दूसरे से दुश्मनी मोल ले बैठे। हालांकि यह जानकारी मायने नहीं रखती क्योंकि ये झगड़ा बिल्कुल बनावटी लगता है और दोनों के बीच कोई भावनात्मक संबंध नहीं दिखाई देता।
दोनों के साथ अच्छे ऐक्टर्स की टीम काम कर रही है (विजय राज़, मनु ऋषि, नीरज सूद, अनिल मांगे), जिनके छोटे-छोटे किरदार हैं, और गिटार की कान में चुभती आवाज़ तथा घड़ी की टिक-टिक के शोर के साथ चूहे-बिल्ली का यह खेल चलता रहता है।
यह काफी हद तक स्पेशल 26 जैसा है, क्योंकि इसके किरदार चलते-चलते भीड़-भाड़ वाले बाज़ारों और पतली गलियों के बीच ग़ायब होते रहते हैं। और ये चीज़ इतनी बार होती है कि दो घंटे इसे झेलना मुश्किल हो जाता है।
सेटर्स की सबसे बड़ी कमी है इसकी कमज़ोर, सादी और लूपहोल्स से भरी कहानी। हालांकि अचानक खत्म होने वाली इस कहानी में अंत तक किरदारों का हौसला और उनकी मायूसी बनी रही है, लेकिन इसमें छापामारी और बच कर निकलने की तरकीबें इतनी आसानी से हो जाती हैं, कि कहानी और भी घटिया और उबाऊ बन जाती है।
और सीधे किसी 007 मूवी में से अचानक एक गिज़्मो की हेरा-फेरी करने वाला किरदार मोबाइल रिंग्स, स्कैनर ग्लासेज़ और अपने कई सारे गैजेट्स लिये इस फिल्म में आ जाता है।
सेटर्स में अपने नालायक बच्चों के लिये मार्क्स खरीदने वाले माता-पिता की मायूस सोच को समझने की कोशिश तो कहीं नहीं की गयी है, लेकिन कम से कम इसमें सस्पेंस के साथ इसे दिलचस्प बनाने की कोशिश ज़रूर की जा सकती थी।
हैरानी की बात है कि U-रेटिंग वाली फिल्म के नज़रिये से, सेटर्स में ख़ून-खराबा भी काफ़ी ज़्यादा है। कभी किसी की उंगली काट कर दूसरे की हथेली पर पटक दी जाती है; तो कभी एक महिला पुलिसकर्मी एक मर्द के गुप्तांगों को थर्ड डिग्री देती दिखाई देती है।
और सबसे भद्दी चीज़ है कुर्ता और लुंगी पहने धार्मिकता और अश्लीलता से भरे गुंडे का किरदार निभाते पवन मल्होत्रा का अस्वाभाविक अभिनय। उनके दो साइज़ छोटे कुर्ते में उनकी उभरी छाती उनकी नथुनियों जितनी ही भद्दी लगती है।
श्रेयस तलपड़े और आफ़ताब शिवदसानी ने बेहतर अभिनय किया है, लेकिन इस बकवास, उलझी हुई कहानी को बचाने के लिए काफी नहीं है।
अपनी शुरुआत में सेटर्स जो थोड़ी-बहुत पकड़ बनाती है, वो भी फ़न फैलाती बुराई और कमज़ोर पड़ती अच्छाई के इस कीचड़ में गिर कर दम तोड़ देती है।