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Rediff.com  » Movies » मर्द को दर्द नहीं होता रीव्यू: ज़रूर देखें!

मर्द को दर्द नहीं होता रीव्यू: ज़रूर देखें!

By सुकन्या वर्मा
Last updated on: March 23, 2019 15:20 IST
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मर्द को दर्द नहीं होता में वासन बाला ने इतनी अजीबोग़रीब, लेकिन इतनी बारीकी से भरी दुनिया बनाई है, जो शायद ही हमने पहले कभी देखी हो, सुकन्या वर्मा कहती हैं।

mard ko dard nahi hota

जब मैंने पिछले साल एक फिल्म फेस्टिवल में पहली बार मर्द को दर्द नहीं होता  देखी, तो मुझे माटुंगा के एक फिल्म दीवाने के पॉप कल्चर अंदाज़ में छुपे नासमझी भरे अतीत को देखने में काफ़ी मज़ा आया।

फिर मैंने इसे दुबारा देखा, और मुझे लगा कि सचमुच इसे ही कहते हैं फिल्म मेकिंग की बिल्कुल ओरिजिनल सोच।

डायरेक्टर वासन बाला का दिमाग़ सपनों की एक दुनिया है, जहाँ बचपन की सुनहरी यादें एक अद्भुत वास्तविकता के साथ सामने आती हैं।

वो हमें ऐसी चीज़ें दिखाते हैं, जो पहले भी हमारे बीच थीं, लेकिन उन्हें दिखाने का तरीका इतना अनोखा होता है, कि उस चीज़ को देखने का हमारा नज़रिया ही बदल जाता है।

साथ ही वो कहानी के साथ जाने वाला मस्ती भरा, मज़ेदार म्यूज़िक पसंद करते हैं।

हालांकि मर्द को दर्द नहीं होता  में कई फिल्मी पहलुओं के लिये सम्मान जताया गया है लेकिन एक फैनबॉय की कलाकारी के रूप में इन्हें फिल्म में बेहद मज़ेदार और हास्यपूर्ण तरीके से दिखाया गया है। हम सभी सिनेमा प्रेमी जानते हैं कि फिल्मों का शौक ज़िंदग़ी के शुरुआती दिनों में शुरू होता है, और ज़िंदग़ी भर रहता है।

बच्चन हो या ब्रूस ली, एक फिल्म-दीवाने का अपने फिल्म मसीहा के लिये विश्वास अटूट होता है।

बाला ने इसी अटूट विश्वास को एक मर्द की कहानी में दिखाया है, जो हर बार चोट लगने पर 'आउच' की आवाज़ निकालता है, क्योंकि उसे एक पुरानी बीमारी है - उसे लगता है उसे दर्द नहीं होता।

यह एक कहानी बयाँ करने वाला शीर्षक है और मनमोहन देसाई की मर्द में बिग बी के जाने-माने डायलॉग का ख़ूबसूरत इस्तेमाल है।

जब हम सूर्या (अभिमन्यु दसानी) की पहली झलक देखते हैं, तो मुंबई के सबर्ब्स का ये लड़का स्लो मोशन में उसकी तरफ पागल सांड की तरह बढ़ते गुंडों से अकेला लड़ता हुआ दिखाई देता है।

न्यूकमर अभिमन्यु अपने भीतर भरी ज़िंदादिली के साथ-साथ नयेपन और सादग़ी की एक ख़ूबसूरत झलक देते हैं।

स्पोर्टिंग मरून ऐडिडास और ब्लू ऑनिट्सुका टाइगर शूज़ के साथ एक फैशनेबल पहली झलक के बीच चिरंजीवी 1990 के दशक के मशहूर गाने के लिये तैयार होते दिखाई देते हैं। रजनीकांत और कमल हासन भी आते हैं और अंजाने में फैन थ्योरीज़ के बारे में मज़ेदार बातें बताते हैं।

स्कूल के लड़के सूर्या के सीन्स में पुरानी फिल्मी झलकियों की कोई कमी नहीं है, जो स्टीमपंक पायलट जैसे कपड़े पहनता है और हाइड्रेशन बैकपैक लेकर चलता है, गोविंदा और चंकी पांडे की फिल्मों की लड़ाई के नारे लगाता है, अपने खतरनाक ज्योमेट्री बॉक्स में विध्वंसक हथियार रखता है और बचपन में एक लड़की से दोस्ती करता है, जिससे उसका धर्म और उनके पिता उन्हें अलग कर देते हैं।

इस अनोखी बीमारी के पीछे चलती कहानी भले ही उसे सुपरहीरो न बना पाये, लेकिन ज़्यादातर मार्शल आर्ट्स मूवीज़ की वीएचएस टेप्स देख-देख कर उसमें जाँबाज़ी भर गयी है और वो खुद को लोगों का रक्षक मानने लगा है।

फिल्मों से दूर रहना उसके लिये क्रिप्टोनाइट की तरह है, लेकिन उसके चिंतित पिता जब उसपर लगाम लगाते हैं तो उसकी पीटर पैन वाली उत्सुकता घटने की जगह और बढ़ जाती है।

सूर्या के आजोबा (महेश मांजरेकर का बहुत ही प्यारा किरदार) का उदार पालन-पोषण उसे हर चीज़ सिखाता है, उसके लड़ाकू सपनों (असभ्य कोड वर्ड्स में) से लेकर लड़कपन की चाह (सहे-ली वाले सुझावों में) तक, उनके बीच की बातचीत मर्द को दर्द नहीं होता  में मस्ती का नया रस घोल देती है।

कहानी और भी मज़ेदार हो जाती है जब सुप्री के रूप में राधिका मदन फ्रेम में आती हैं।

नयी और पुरानी नखरेवाली  की तर्ज पर दिया गया उसका परिचय उसके गुस्सैल स्वभाव को बख़ूबी बयाँ करता है, जिसकी झलक वो छेड़खानी करने आये कुछ गुंडों की पिटाई करके देती है और सूर्या के साथ-साथ दर्शक भी हक्के-बक्के रह जाते हैं।

वह सीन बड़ा ही प्यारा है जिसमें वो बेहद खुशी के साथ बताती है कि खुजली करने में कितना मज़ा आता है।

बचपन के बिछड़े दोस्तों के जवानी में दुबारा मिलने की इस कहानी में मेलोड्रामा का न होना बाला के ख़ास अंदाज़ की झलक देता है।

ऐसा नहीं है कि मर्द  साहस दिखाने से दूर भागता है। बल्कि मर्द तो अपनी बीमारियों, कमज़ोरियों, कमियों को मानता है और इन सभी को दूर करके बदलाव लाने के लिये तैयार रहता है।

जैसे मदन एक जिज्ञासु विरोधाभास है।

गलत काम करने वालों की हड्डी-पसली एक करने में माहिर एक कराटे एक्सपर्ट, जो अपनी बीमार माँ के इलाज के लिये अपने एनआरआइ आशिक के बर्ताव को झेलती है।

मैं कुछ भी नहीं हूं, एक दिल छू लेने वाले सीन में वो अपनी माँ (गंभीर पल को संजीदग़ी से अदा करती लवलीन मिश्रा) से कहती है।

लेकिन वो है, और यह बात मणि को पता है।

गुलशन दवैया की एक पैर वाली कराटे इन्स्ट्रक्टर और उसकी बदमाश जुड़वाँ बहन जिमी मर्द को दर्द नहीं होता  के सबसे बड़े ट्रम्प कार्ड हैं। दोनों पर बाला का पूरा ध्यान उनकी हरफनमौला काबिलियत के साथ-साथ अपने किरदारों के लिये ऐक्टर के भीतर से सही हाव-भाव को बाहर लाने की क्षमता को दिखाता है, जो आपको डायरेक्टर के रूप में उनकी पहली फिल्म पेडलर्स  में भी दिखाई देता, अगर वह फिल्म रिलीज़ हो पाती

एस पी बालासुब्रमण्यम के प्लेबैक के अनोखे अंदाज़ के साथ मणि और जिम्मी के बीच की दुश्मनी की शुरुआत के पीछे की धमाकेदार कहानी मज़ेदार तरीके से दिखाई गयी है।

करन कुलकर्णी के गाने चिल्लाहट की तरह हैं, और फिल्म के पूरे 137 मिनट अलग-अलग भावनाओं के साथ गूंजते रहते हैं।

बाला ने एक इतनी अजीबोग़रीब, लेकिन बारीकी से भरी दुनिया बनाई है, जो शायद ही हमने पहले कभी देखी हो (हीरो को विलेन का पता मांगते हमने पिछली बार कब देखा था?)

दो बहनों के बीच बढ़ती दुश्मनी की दीवार हो, रीडेवलपमेंट के लिये अधूरी छोडी गयी इमारत पर मिलने वाले दोस्त हों, एक सिक्योरिटी सर्विसेज़ की इमारत के भीतर हँसाने वाला ऐक्शन सेट पीस हो, जिसके बुज़ुर्ग रखवाले मामा एमटीवी वाले दिनों की याद दिलाते हों या फिर फार्ट ज्ञान से शुरू होने वाला एक अनोखा रॉयल रम्बल हो, मर्द को दर्द नहीं होता  में हर कदम पर आपको सच और सपनों का संगम दिखाई देता है।

वासन बाला ने पूरे दिल से इसे बनाया है।

लोग सीढ़ियों से फँस कर गिर रहे हैं, गाड़ियों से टकरा रहे हैं, अपनी हथेलियाँ काट रहे हैं, होंठ छिल रहे हैं, खौलता पानी पी रहे हैं, लेकिन दर्द आपको ज़रूर दिखाई देगा।

और इस बात को फिल्म बनाने वाले से बेहतर कौन जानता है।

जैसा कि चिरंजीवी ने उस फ़्लैशबैक में कहा था, 'इट्स अ चैलेंज!'

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