भारी बरसात अब मुंबई में उत्साह का विषय नहीं है।
काम के सप्ताह में लगातार मूसलाधार बरसात का मतलब है कि आधा शहर घंटों देर से घर लौटेगा। या लौटेगा ही नहीं।
और गंदे पानी तथा बिखरे हुए ट्रैफ़िक के बीच घर जाने की जंग मुश्किल और निराशाजनक हो जाती है।
और कई बार स्थिति डरावनी भी हो जाती है।
दिव्या नायर/रिडिफ़.कॉम को हाल के एक बरसाती दिन पर घर लौटने में आठ घंटे लगे।
उसकी कहानी अन्य मुंबईकरों से अलग नहीं है।
मुंबई की बरसात में क्या किसी को अपने घर पहुंचने में आठ घंटों का समय लगना चाहिये?
क्यों?
फोटो: सितंबर 4, 2019 को लोकल ट्रेन के डिब्बे से बाहर झाँकती एक महिला यात्री। हमें पटरियों के आस-पास पानी में साँप दिख रहे थे। फोटोग्राफ: Divya Nair/Rediff.com
लगभग एक सप्ताह पहले मुंबई ने दो दशकों के सबसे ज़्यादा बरसाती दिन का सामना किया।
और एक सप्ताह पहले मैंने मूसलाधार बारिश में अपने घर तक की आठ घंटों की भयानक यात्रा की।
और मैं इसे सबसे भयानक नहीं कहूंगी।
मैं 14 साल पहले जुलाई 26 को घर लौटने के इससे भी डरावने सफ़र को कभी नहीं भूल सकती।
मुझे याद है, 2005 में मैं सुबह 10.30 को एस के सोमैया कॉलेज, विद्याविहार से अपनी रिपोर्ट कार्ड लेकर निकली थी। मैं मुंबई के उत्तर में स्थित शहर, कल्याण में अपने घर लगभग 12 घंटे बाद 10 बजे रात को पहुंची थी।
जुलाई 26, 2005 के बारे में सोच कर आज भी मेरी रूह काँप उठती है। पहले घुटने भर पानी और उसके बाद गर्दन तक पानी में चलना (मेरा कद 5 फुट 3 इंच है और मुझे तैरना नहीं आता)। सिर्फ 1.5 किमी की दूरी तय करने में मुझे असहाय कुत्तों, डूबते रिक्शों और कारों, तैरते मैट्रेसेज़ के बीच तीन घंटों का समय लगा।
वह मेरी ज़िंदग़ी का सबसे डरावना, मौत को करीब से देखने का अनुभव था।
घर के रास्ते में न बिजली थी, न किसी तरह की रोशनी। घर की तरफ़ बढ़ते हुए हमें सावधान रहना था कि हम 15 फुट गहरे नाले की ओर बह न जायें, जो हमारे रास्ते के बगल से पूरे उफ़ान पर बह रहा था।
मैं ख़ुशनसीब थी। मैं अपने छोटे भाई और पड़ोसी के साथ थी, उन दोनों को तैरना आता था। दोनों ने मुझे पकड़ कर रखा था।
जुलाई 26, 2005 और बुधवार, सितंबर 4, 2019 के बीच कुछ समानता ज़रूर थी।
दोनों ही दिनों पर, घर के लिये निकलने पर मैं आगे के सफ़र के लिये तैयार नहीं थी। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि यह सफ़र इतना भयानक होगा।
फोटो: दादर स्टेशन, उत्तर मध्य मुंबई में फँसे हुए यात्री मदद का इंतज़ार करते हुए।
सितंबर 4 को जब मैं माहिम, उत्तर मध्य मुंबई में स्थित अपने ऑफ़िस से शाम 4 बजे निकली, तो मुझे पता था कि मैं देर से घर पहुंचूंगी। मैं कुछ घंटों के भीतर पहुंचने की उम्मीद में थी, क्योंकि मेरा 2 साल का बच्चा कल्याण में मेरा इंतज़ार कर रहा था।
अक्सर, क़िस्मत अच्छी होने पर मुझे दादर, उत्तर मध्य मुंबई से फास्ट ट्रेन मिल जाती है और मैं लगभग डेढ़ घंटे में घर पहुंच जाती हूं।
पिछले बुधवार, लोकल ट्रेनें पहले ही कम हो जाने के बावजूद पहले मैंने घर पहुंचने के लिये ट्रेन लेने की कोशिश की। शायद मुंबई की जीवनरेखा कही जाने वाली लोकल ट्रेनों के प्रति मेरी वफ़ादारी उस दिन लिये गये इस ग़लत फ़ैसले का कारण थी।
जब मैं वेस्टर्न लाइन पर माहिम से दादर स्टेशन पहुंची, तो स्टेशन पर बाढ़ आई हुई थी।
मुझे कल्याण ले जाने वाली सेंट्रल लाइन की ट्रेनें बंद हो चुकी थीं, क्योंकि सेंट्रल लाइन की पटरियों पर पानी भर गया था।
मैं कल्याण की ट्रेन के डब्बे में दो घंटे बैठी रही, इस उम्मीद में कि ट्रेन चलेगी, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। एक ही विकल्प बचा था, ट्रेन से उतरो, सड़क पर निकलो, हाइवे तक पहुंचो और घर तक जाने वाला परिवहन का कोई साधन ढूंढो।
मैं बस यह फैसला नहीं कर पा रही थी कि क्या मुझे घर के लिये इस अनिश्चित सड़क यात्रा का जोखिम उठाना चाहिये, तभी मुझे मेरे परिवार के एक करीबी दोस्त और पड़ोसी मिले, जो अपनी शादी की सालगिरह पर अपनी पत्नी को सरप्राइज़ देने कल्याण ही जा रहे थे।
उन्हें जवाब में 'ना' नहीं सुनना था!
तो हम बस की तलाश में निकले, जो हमें मुंबई के उत्तर में स्थित शहर ठाणे तक ले जाये, जहाँ से हम कल्याण की ट्रेन पकड़ सकें।
इसके बाद मुझे घर पहुंचने में और छः घंटे लगे -- जिसमें से तीन घंटे वडाला, मध्य मुंबई की अंजान गलियों में बीते -- जिसके दौरान हम हमारे प्राइवेट बस ड्राइवर को हमें बीच में न छोड़ने का आग्रह करते रहे, जो तितर-बितर ट्रैफिक से परेशान था।
ट्रैफिक पुलिस के लोग कहीं नहीं थे।
और लगातार बिना रुके बरसती बारिश हमारी चिंताओं को और बढ़ा रही थी।
मैं उस दिन घर कैसे पहुंची, उसके बारे में और बात नहीं करना चाहूंगी। मेरी कहानी बुधवार को घर से निकले और लोगों से अलग नहीं है।
घर पहुंचने वाले ज़्यादातर लोगों को यह जोखिम उठाना पड़ा, हम ऐसा चाहते नहीं थे। सभी लोग मेरी ही तरह असहाय और चिंतित थे, और किसी के पास कोई बेहतर विकल्प नहीं था।
यह पता होने के बावजूद उन्हें यह जोखिम उठाना पड़ा, कि ज़्यादातर सड़कों पर या तो पानी भरा है, या सड़कें खुदी हुई हैं, बंद हैं या फिर भरी हुई हैं।
आप जानते हैं कि रास्ते में आने वाले ज़्यादातर सार्वजनिक प्रसाधन गृह इतने बदबूदार होते हैं कि वहाँ खड़े रहना भी मुश्किल होता है। उनका इस्तेमाल करना तो दूर की बात है।
मर्द तो जहाँ चाहे वहाँ पेशाब कर लेते हैं, लेकिन महिलाओं का क्या? सोचिये, सार्वजनिक शौचालय में जाने के डर से छः से आठ घंटे पानी न पीना कैसा होगा।
लेकिन उस दिन मैंने कुछ चीज़ें देखीं और सीखीं:
कई लोग दोपहर से ही दादर में रुकी हुई ट्रेनों में बैठे हुए थे, जिनमें ख़ास तौर पर छोटी लड़कियाँ और महिलाऍं थीं।
उनमें से कुछ ने कुछ खाया भी नहीं था, न अपनी जगह से हिले थे और न ही उन्होंने घर पहुंचने के लिये कोई दूसरा विकल्प आज़माया था। सभी बस इस उम्मीद में बैठे थे कि ट्रेन कभी तो चलेगी और वो घर पहुंच जायेंगे।
मुझे लगता है कि हमें ट्रेन में चलना भले न पसंद हो, लेकिन ऐसी स्थितियों में ट्रेन परिवहन का सबसे भरोसेमंद माध्यम बन जाती है और इसलिये इसे मुंबई की जीवनरेखा कहा जाता है। लेकिन हमारी जीवनरेखा ने बुधवार को हमें धोखा दे दिया।
मुझे और भी कुछ चीज़ों का एहसास हुआ: मैं जिस प्राइवेट बस में बैठी थी, वह वडाला के एक छोटे गणपति पंडाल के बगल से ग़ुज़री, जहाँ कुछ छोटे लड़के हमारी बस में आये और उन्होंने हमें गर्म दूध के कप और तीन पैकेट बिस्किट दिये। खाना देखते ही देखते ख़त्म हो गया और भूखे बस यात्रियों को इससे बहुत राहत मिली।
कुछ मिनट बाद, हम उस इलाके के सबसे समृद्ध पंडाल के पास से ग़ुज़रे। वहाँ पर कोई भी नहीं था--तो शहर के फँसे हुए यात्रियों की मदद करने का सवाल ही नहीं उठता। शायद उनके आयोजक भक्तों की कतार को पंडाल में छोड़ने या चढ़ावे को गिनने में ज़्यादा व्यस्त थे।
बेस्ट बस ड्राइवर और कंडक्टर -- जिनमें से कई की बस ख़राब हो गयी थी/फँस गयी थी और आने-जाने का रास्ता बंद हो गया था -- सड़क पर निकल कर यातायात को संभाल रहे थे। यह उनका काम नहीं है, लेकिन उन्होंने आगे आकर स्थिति को संभालने की कोशिश की।
गणपति के दर्शन के लिये मुंबई आये कुछ बाहरी यात्रियों ने हमें अपने स्मार्टफोन और पावर बैंक दिये, ताकि हम GPS का इस्तेमाल करके ड्राइवर को घर पहुंचने का सबसे छोटा रास्ता बता सकें।
एक घंटे तक बस ड्राइवर की कुशलता (या कुशलता की कमी) देखने का इंतज़ार करने के बाद, मेरे कल्याण के बुज़ुर्ग दोस्त और पड़ोसी अपने बैग को मेरे बगल की सीट पर रख कर बस में आगे गये। मैंने उन्हें ड्राइवर से बात करते देखा। कुछ समय बाद वह दिखाई नहीं दे रहे थे और बस चलने लगी।
मेरे दोस्त मूसलाधार बारिश में सड़क पर निकल कर ट्रैफिक पुलिस वाले का काम कर रहे थे। जल्द ही एक छोटा लड़का उनकी मदद के लिये आया। दोनों मिल कर हमारी बस और उसके पीछे की गाड़ियों के लिये रास्ता बना रहे थे।
एक मौके पर मेरे कल्याण के दोस्त को ट्रैफिक को दिशा देते हुए एक कार की बोनट के ऊपर झुकना पड़ा, रिक्शा ड्राइवर्स को डाँटना और बेस्ट बस ड्राइवर्स से मिन्नतें करनी पड़ीं, तब जाकर धीरे-धीरे हम कई घंटों तक आगे खिसकते रहे।
रात 10.30 बजे हम एक पेट्रोल पम्प पर रुके, जहाँ पूरी बस को यात्रा के दौरान कुछ न बोलने वाले एक अधेड़, बुज़ुर्ग लगने वाले अंकल ने सभी को वडा पाव खिलाया, क्योंकि उनका मानना था कि भगवान ने हम सभी को किसी कारण से एक साथ जुटाया है।
आधी रात को जब मैंने ठाणे से कल्याण की ट्रेन पकड़ी, तो मुझे जनरल डब्बे में यात्रा करनी पड़ी। हमारी सुरक्षा के लिये तैनात पुलिसकर्मी महिला प्रथम श्रेणी डब्बे में खर्राटे भर रही थी। मैं उसकी तसवीर लेकर सभी को उसकी ग़ैरज़िम्मेदारी दिखाना चाहती थी, लेकिन किसी कारण से मैंने ऐसा नहीं किया।
फोटो: काम पर तैनात रेल कर्मचारी।
उस दिन की कई भयानक कहानियाँ भी सामने आयीं:
रेलवे में काम करने वाला एक दोस्त अक्सर ऐसी स्थितियों में मेरी मदद करता है, जो उस दिन छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस, दक्षिण मुंबई में दोपहर 2 बजे से फँसा हुआ था। उसने मुझे बताया कि CST से पहली ट्रेन अगली सुबह सितंबर 5 को 3.10 बजे चली, यानि कि लगभग 15 घंटे देर से। लेकिन फिर भी उसने अपनी शिफ़्ट पूरी की और सुबह 11.30 बजे कल्याण पहुंचा।
मेरी एक सहेली ऑफ़िस से निकल कर दूसरे मार्ग से घर जा रही थी, जो ट्रेन में चढ़ने की कोशिश में दम घुटने से मरते-मरते बची, पहले ऐसा अंधेरी स्टेशन, उत्तर पश्चिम मुंबई में और फिर सेंट्रल लाइन के घाटकोपर, उत्तर पूर्व मुंबई में हुआ। ट्रेन में घुसने में सफल होने के बाद का भी अनुभव भयानक ही था।
मेरे एक चाचा ने ट्रेन के इंतज़ार में कुर्ला स्टेशन पर लगभग 4 घंटे बिताये। ट्रेन आने पर उन्हें एक घंटे का सफ़र ट्रेन के दरवाज़े पर एक पाँव पर लटक कर करना पड़ा।
हमने रास्ते में एक पूरी भरी हुई ट्रक देखी, जो फँसे हुए लोगों को घर ले जा रही थी। मैं सोच रही थी कि ट्रक के भीतर महिलाऍं, जिन्हें सबसे ज़्यादा अंदर की तरफ़ रखा गया था, साँस कैसे ले रही होंगी।
इस बार, आठ घंटों के घर के सफ़र में मुझे सिर्फ घुटनों तक पानी में चलना पड़ा, जिसे मैं अपना सौभाग्य कहूंगी! और कम से कम मुझे ठाणे तक बस में बैठने की जगह मिल गयी थी।
तो भले ही मेरी यात्रा में चार गुना ज़्यादा समय लगा हो, लेकिन मेरी क़िस्मत मेरे साथ थी।
मैं उस दिन मिलने वाले अच्छे लोगों को कभी नहीं भूल सकती -- जिन्होंने मुझे सुरक्षित घर पहुंचाने में किसी न किसी तरह मदद की, जिनके कारण मैं रात 12.42 बजे घर पहुंच कर अपने नींद से चूर बेटे को गले लगा पायी।
सुबह घर से निकले 18 घंटे बीत चुके थे, दोपहर का खाना खाये 11 घंटे हो चुके थे, पानी पिये और शौचालय का इस्तेमाल किये लगभग 9 घंटे हो चुके थे।
उस समय कुछ भी मायने नहीं रखता था। मेरी पूरी थकान नन्ही सी बाँहों में लिपट कर दूर हो गयी।